pratima singh Poems

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1.
वेश्या...

हर रात मैं,
अपने जिस्म को सजाती, संवारती हूँ..
फिर तलाशती हैं आँखें,
एक दूसरे जिस्म को..
...

2.
मुझमें तुम..

तुम्हारे माथे की एक शिकन,
और ज़िंदगी सज़ा सी लगने लगती है,
तुम मुझमें वैसे हो..
जैसे, जिस्म में साँसें..
...

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