भटकता मुसाफ़िर Poem by The Yash Pathak

भटकता मुसाफ़िर

'ख़्वाबों के दरिया में तैरता हूँ मैं,
हक़ीक़त के किनारों से डरता हूँ मैं।

रात की चाँदनी में राहें आसान लगती हैं,
सुबह की धूप से मगर उलझता हूँ मैं।

हर ख़्वाहिश समंदर की लहरों सी उठती है,
मगर किनारों की हद से टकराता हूँ मैं।

लोग कहते हैं साहिल पे सुकून मिलता है,
पर साहिल की ख़ामोशी से घबराता हूँ मैं।

मंज़िल की तलाश में रुकता भी नहीं हूँ,
बस अपनी तलाश में ही भटकता हूँ मैं।'

भटकता मुसाफ़िर
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
हर इंसान अपने ख़्वाबों और हक़ीक़त के बीच कहीं न कहीं अटका होता है। यह नज़्म उसी भटकते मुसाफ़िर की दास्तान है, जो तलाश में तो है… मगर सुकून अब भी कहीं गुम है।
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success