प्रचण्ड विद्युतीय काष्ठकार
ओह, मैं मर जाऊंगा, मर जाऊंगा, मर जाऊंगा।
दग्ध उन्माद से तड़प रहा, ये मेरा जिस्म
क्या करूं, कहां जाऊं, जानता नहीं; ओह, थक गया हूं मैं।
सारी कलाओं के पुष्ठ पर लात मार, चला जाऊंगा, शुभा!
शुभा - जाने दो मुझे, और छुपा लो, अपने आंचल से ढांके वक्ष में।
काली विनष्ट, केसरिया पर्दों के खुले साए में
आखिरी लंगर भी छोड़ रहा है मेरा साथ, सारे लंगर तो उठा लिए थे मैंने!
अब और नहीं लड़ पाऊंगा, लाखों कांच के टुकड़े प्रांतष्थ में चुभते हुए
जानता हूं, शुभा, अपनी कोख फैलाओ, समेट लो - शांति दो मुझे।
मेरी हर नब्ज़, एक उद्दत्त रुदन का गुबार, ले जा रही है हृदय तक
अनंत वेदना से संक्रमित - मस्तिष्क प्रस्तर सड़ रहा है!
क्यूं नहीं तुमने मुझे जन्म दिया, एक कंकाल के रूप में?
चला जाता मैं दो अरब प्रकाश वर्ष दूर - और नतमस्तक हो जाता खुदा के समक्ष
पर, कुछ भी अच्छा नहीं लगता, कुछ भी नहीं।
उबकाई आती है, एक से अधिक चुम्बन से।
भूल जाता हूं, कई बार मैं
बलात् संभोग के वक्त, सामने पड़ी स्त्री को
और लौट आता हूं अपनी काल्पनिक
दिवाकर संवर्णी - तप्त वस्ती में।
नहीं पता मुझे, ये क्या है, पर ये मेरे अंतर्मन में हो रहा है!
नष्ट कर दूंगा सब कुछ, चकनाचूर कर डालूंगा
बुलाऊंगा, और अपनी वासना से उद्धत्त कर दूंगा शुभा को।
आवश्यक है - शुभा का परित्याग
ओह मलय!
कलकत्ता, मानों घृणित - पिल्पिले रक्त - रंजित - फिस्लाऊ
मानवीय अंगों का जुलूस बन चुका है।
पर खुद का क्या करूंगा, पता नहीं मुझे
क्षीण होती जा रही है मेरी स्मृति
मृत्यु की ओर अकेला ही जाने दो मुझे।
ना मुझे संभोग सीखना पड़ा, ना ही मौत
ना ही सीखना पड़ा, मूत्र के पश्चात, शिश्न से आखिरी टपकती बूंद को
झाड़ने की जिम्मेदारी
ना ही सीखना पड़ा - अंधेरे में शुभा के पास जाकर लेटना
ना फारसी चमड़े का इस्तेमाल -
नंदिता के वक्ष पर लेटने के दौरान।
जबकि मैं चाहता था आलिया-सी स्वस्थ आत्मा
ताजी चीनी गुलाब सी कोख
फिर भी अधीन हो गया मैं - अपने मस्तिष्क के विचार प्लावन में
समझ नहीं पा रहा, क्यूं फिर भी मौजूद है मेरी जिजीविषा!
सोचता हूं, अपने एईयाश, सवर्ण, चौधुरी खानदान के पूर्वजों के बारे में
मुझे कुछ नया और अलग करना चाहिए।
सोने दो मुझे, एक आखिरी बार,
शुभा के स्तनों से, नर्म बिस्तर पर,
याद आ रही है मुझे, वो तेज चमकार, मेरे जन्म के क्षण की।
देखना चाहता हूं, मैं अपनी मौत को, खुद - मारने से पहले
दुनिया को कुछ लेना - देना नहीं है, मलय रॉय चौधरी से।
शुभा, सोने दो मुझे थोड़ी देर
अपने हिंसक चंदीले गर्भाशय की आगोश में।
शांति दो मुझे, शुभा, मुझे शांति पाने दो।
मेरे पापी अस्थि पिंजर को धुल जाने दो, अपनी माहवारी के रक्त स्राव में।
तुम्हारी कोख में मुझे बना लेने दो, खुद को, अपने ही वीर्य से।
क्या में ऐसा ही होता, अगर कोई और होते मेरे वालिदैन?
क्या मलय, उर्फ मैं, संभव था, किसी और वीर्य की बूंद से?
क्या में मलय ही होता, मेरे पिता की किसी रखैल के गर्भ में?
क्या मैंने, शुभा के बिना, खुद को
अपने मृत भाई की भांति, एक पेशेवर सज्जन बनाया होता?
ओह, जवाब दो, कोई तो जवाब दो!
शुभा, आह शुभा
तुम्हारी झीनी कौमार्य के पार, देखने दो मुझे संसार को
आ जाओ, इस हरे बिस्तर पर
जैसे चुंबक सी प्रबल शक्ति से, खिंच जाती हैं धनारिन किरणे।
याद आया मुझे,1956 के अदालती फैसले का वो खत
तुम्हारी भगन शिश्निका के आस पास
मक्कारी की मालिश हो रही थी।
तुम्हारे स्तनों में दुग्ध धाराएं बनने लगीं थीं
मूर्ख यौन संबंध, जो बदल गया था, गर्भ में, लापरवाही से
आआआआआआ आह
नहीं जानता मैं, कि में मरूंगा या नहीं,
अधीर हृदय की थकान के साथ - फिजूखर्ची उफान पर थी।
मैं नष्ट-भ्रष्ट कर दूंगा
कला को समर्पित - सब कुछ टुकड़े टुकड़े कर दूंगा
कोई और राह नहीं, कवित्त से - अपघात के सिवा!
शुभा
अपनी स्मरणातीत, असंयम योनि में आने दो मुझे
शोक-हीन प्रयत्न के बेतुकेपन में
मदांध हृदय के सुनहरे पर्णहरिमा में!
क्यों ना मैं खो गया, अपनी मां की मूत्र नली में ही?
क्यूं नहीं मैं बह गया, अपने पिता के मूत्र में, हस्त मैथुन के पश्चात।
क्यूं ना मैं दिंब प्रवाह में मिल गया, या फिर मुख़ श्लेष्मा में?
उसकी बंद लापरवाह आंखें, मेरे नीचे
भयावह व्यथित होता हूं मैं, जब छीजते देखता हूं, आराम को,
शुभा
एक अबला रूप दिखाकर भी, स्त्रियां हो सकती हैं - भीषण कपटी
आज, ऐसा प्रतीत होता है, कि स्त्री जैसा विश्वासघाती कोई नहीं, और
मेरा भयातीत हृदय, दौड़ रहा है, एक असंभव मृत्य की ओर
फूटी धरती से निकल, चक्रित जल धाराएं मेरी गर्दन तक आ रही
मर जाऊंगा मैं
ओह, क्या हो रहा मेरे अंतः में?
अपने ही हाथ और हथेली को हिला सकने में असक्षम
मेरे पजामे पर चिपके सूखे वीर्य,
से निकल पड़े हैं, अपने पर फैलाए
तीन लाख बच्चे - शुभा के वक्ष स्थल की तरफ
मेरे रुधिर से लाखों सुइयां अब कावित्त की तरफ भागती हुई
ज़िद्दी पैर मेरे, अब उतारू हैं - एक निषिद्ध छलांग लगाने को
मृत्यु घातक संभोग राशि में उलझ, शब्दों के सम्मोहक साम्राज्य में
हिंसक आइनों को कमरे की हर दीवार पर लटका हुआ, मैं देख रहा हूं
कुछ नंगे मलय को खुला छोड़ते ही, उसका असंगठित संघर्ष!
अनुवाद - दिवाकर ए पी पाल
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