खुदा हूँ, खुदा ही रहने दो
बिन बात के जो हम मुस्कुराए,
उन्होने जाना कि
कुछ तो ग़म है जो ये छुपाए
तब जाके तुम आए हमारी चौखट पे
इंसान नहीं हूँ जो दुआ कबूल करूं
खुदा हूँ, खुदा ही रहने दो
तुमने जो मंदिर बनाया है,
ऐसे ही नही बनाया है,
कुछ तो अभिलाषा होगी
कोई तो मुराद होगी
आह जो दिल से निकाली जायेगी
जरूरी नही कि लौट कर आएगी
कभी कठपुतलियों से पूछा कि उनकी रज़ा क्या है
कभी गुलाबों से जाना कि उनकी हसरत क्या है
कभी खंजर से पूछा कि उसके इरादे क्या है
पूछो कभी उनके आकाओं से उनके पास कोई तिलिस्म तो नहीं
हर बार तो बाग़बान चुगता है गुलाब को,
पर एक बार तो फिर भी काँटा चुभता है जनाब को
सही और गलत का भेद तो तुमने न जाना
पंडितों ने जो सिखलाया वही जाना
वेद-पुराणों को तो न जाना
जो दर्शाया वही जाना
आँखें देख न पाएँ वो नज्जारा है गलियों मे,
कान सुन न पाये वो हंगमा है गलियों मे,
सो हमसे न देखा गया, न सुना गया
आज तुम फिर आए हो मेरे दर पे
जो तैरना आ जाए, फिर समंदर से घबराएँ क्यूँ
जो पढना आ जाए, फिर काले अक्षरों से सकपकाएं क्यूँ
जो हो खुद पर भरोसा, आँधियों से मुह छुपाये क्यूँ
जो मुरादें पूरी हो जाएँ, फिर हमारे दर पर आये क्यूँ
खुदा हूँ, खुदा ही रहने दो
इंसान होता तो तुम आते क्या?
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