दक्षिणामूर्ति स्तोत्र
आचार्य शंकराचार्य
हिंदी कविता
डा नवीन कुमार उपाध्याय
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विश्व दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतं पश्यन् आत्मनि मायया बहिरिवोडूतं यया निद्रया। यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयं तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।
वह निद्रा जिसमें दर्पण में दिखाई देते नगर सम भ्रम।
दुनिया अपने भीतर दिखाई देती है, जैसे स्वयं बहिर्मुखी भ्रम ।।
मैं उस श्री गुरु-मूर्ति, श्री दक्षिणा-मूर्ति को करता नमन वंदन।
जागृति के समय भी स्वयं प्रत्यक्ष रूप से एक ही रूप में करते समर्पण।।
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बीजास्यान्तरिवाङकुरो जगदिदं प्रानिर्विकल्पं पुन मर्मायाकल्पितदेशकालकलना वैचित्र्यचित्रीकृतम्। मायावीव विजृम्भयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।
बीज के भीतर अंकुर की तरह, विकल्पहीन यह दुनिया,
मर्म द्वारा कल्पना की गई स्थान और समय की गणना
पुनः निर्माण अनंतर अजीब तरह से बन जाती विचित्रित ।
मैं उस श्री-गुरु-मूर्ति, श्री-दक्षिण-मूर्ति नाम कर लेता हृदय मूर्ति रुप चित्रित।।
प्रणाम करता हूँ, मैं उन जो महान योगी को सप्रेम।
अपनी इच्छा से माया की तरह विस्तार करते रख प्रभु प्रेम।।
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यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते साक्षात् तत्वमसीति वेदवचसा यो बोध्यत्याश्रितान्। यत्साक्षात्करणाद् भवेन्न पुनरावृतिर्भवाम्भोनिधौ तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।
अन्वयार्थ
जिन चित्स्वरूप आत्मा का ही सहज स्वरूप स्फुरण ज्ञान
स्वयं ही असत् तत्वों का करा देता, दिग्दर्शन, सहज परित्राण ।।
मिथ्या पदार्थों को भी कर रहा परिभाषित भासित, प्राण आप्लावित।।
जो दक्षिणामूर्ति शिवगुरु शरणागत को वेद महावाक्यों से करा देते अभेदबोध ।
आत्मस्वरुप -साक्षात्कार से भवसागर निवर्तन हो जाता निषेध।।
उन बोधगुरुमूर्ति-श्रीदक्षिणामूर्ति को हमारा नमन है।
'नवीन 'अकिंचन दास का सदैव सर्वात्मना समर्पण ।।
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नानाछिद्रघटोदरस्थितमहादीपप्रभाभास्वरं जानं यस्य तु चक्षुरादिकरणद्वारा बहिः स्पन्दते। जानामीति तमेव भान्तमनुभात्येतत् समस्तं जगत तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।
अन्वयार्थ
अनेक छिद्रद्वार घट मध्य विशाल दीपक प्रभा सम प्रकाशस्वरूप ।
चित्स्वरूप आत्माज्ञान, चक्षु आदि इन्द्रियों द्वार से बनता बर्हिस्वरुप।।
अनंतर दर्शन प्रतिभासित होता जगत में, स्वत: हो नहीं सकता
उन दक्षिणामूर्ति रूप गुरुमूर्ति को 'नवीन 'नमन्, कहीं समर्पण न कर सकता।
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देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः
खीबालान्धजडोपमास्त्वहमिति भान्ता भृशं वादिनः। मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोहसंहारिणो तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।
अन्वयार्थ
अनेकानेक मतावलंबी भ्रान्ति भ्रम में जड़े हुए
आत्मा विषय में विषम संशयग्रस्त पड़े हुए ।
इसीलिए कोई शरीर को ही समझ लेते आत्मा। कुछ लोग केवल जान लेते प्राण को ही आत्मा।
कुछ दार्शनिक, एवं इन्द्रियों को भी आत्मा ।
बौद्धआदि क्षणिक विज्ञान, शून्य को ही आत्मा।
स्त्री. बालक, सूर मूर्ख के समान हैं वे मनुष्य
जान लेते देह आदि को ही अहम् इति सर्वं
शंका समाधान है, परमात्मा अनिर्वचनीय शक्ति उसके विलास से ही देह आदि में आत्मबुद्धि।
महाव्यामोह से उत्पन्न हो गया जो विशिष्ट संसार
मोह संहारकारी'नवीन' 'श्रीगुरुमूर्ति- दक्षिणामूर्ति को नमस्कार।
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राहुग्रस्तदिवाकरेन्दुसदृशो मायासमाच्छादनात् सन्मात्रः करणोपसंहरणतो योभूत् सुषुप्त पुमान्। प्रागस्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिजायते तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं
श्रीदक्षिणामूर्तये।।
जिस प्रकार सूर्य और चंद्रमा को राहु ने कर लिया ग्रहण ।
उसी प्रकार जो मनुष्य पड़ गया माया के आवरण ।।
अपने कर्मों के निवृत्त होने से, अपनी इंद्रियों के निवृत्त होने से सो गया। इसे श्री गुरु की मूर्ति पर चढ़ाया जाता है जो जागृति के समय पिछले स्वप्न के रूप में पुनर्जन्म लेते हैं
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अन्वयार्थ
जो प्रत्यक्स्वरूप आत्मा विशेष विज्ञान हेतु करता चक्षुरादि करण उपसंहार
समात्रः सद् आनन्द रूप से सुपुषि में रहता साकार ।
माया अविद्या आवरण आच्छादित होने के कारण स्पष्ट रूप से नहीं प्रकाशमान
राहु से ग्रसित सूर्य-चंद्र के समान प्रकाशमान न होने पर भी सुषुति में विद्यमान।।
जो आत्मा जात् अवस्था में इति में जागने से पहले गहरी निन्द्रा में सुख से सोया था
ऐसी प्रत्यभिज्ञा से सुषुप्ति अवस्था में भी सिद्ध होता।
सर्वअवस्था स्थित साक्षीरूप 'नवीन' 'श्रीगुरुमूर्ति-दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता।।
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बाल्यादिष्वपि जायदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि व्यावृतास्वनुवर्तमानमहमित्यन्त स्स्फु रन्तं सदा। स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।
बाल- यौवन- प्रौढ-वृद्धावस्था, जाग्रत-स्वप्न- -सुषुति-मूच्रछा सभी अवस्था ।
बदलने पर भी जो सदैव ही रखते एकरस व्यवस्था अवस्था।।
अनुवर्तमान-विद्यमान शरीर अन्त: पुर प्रकाशमान आत्मा स्वरूप ।
भजनकर्ता को दर्शन करा देते सुन्दर अभयाशीष ज्ञान मुद्रा रुप ।।
उन श्रीगुरुमूर्ति-दक्षिणामूर्ति को मेरा सर्वस्व समर्पण।
बारंबार प्रणाम करता 'नवीन 'सहित तन मन धन।।
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विश्व पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसम्बन्धतः शिष्याचार्यतया तथैव पितृपुत्रायात्मना भेदतः । स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिश्रमितः तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।
वह ब्रह्मांड को कारण और प्रभाव के रूप में, गुरु के संबंध में, शिष्य और शिक्षक के रूप में, स्वयं के रूप में पिता और पुत्र से भिन्न देखता
जिनकी करुणा से सर्वत्र अभेद मिट जाता
चाहे वह स्वप्न जाग्रत हो या परिश्रम श्रमित
श्री गुरुमूर्ति दक्षिणामूर्ति को प्रणाम भाव नमित।
ं
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भूरम्भांस्यनलोनिलोम्बर महौथो हिमांशु पुमान् इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूचष्टकम्। नान्यत् किंचन विद्यते विमृशतां यस्मात् परस्मात् विभोः तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।
अन्वयार्थ
पृथिवी, जल, आग, पु, आकाश, सूर्य, चन्द्र एवं भोक्ता जीव
इस प्रकार जिस सर्वज सदाशि को आठ मूर्तियां चराचरात्मक सारा विश्व ।
आठ मूर्तियों के रूप में भासित हो रहा है, यह तो व्यक्त उपासकों की बात।
विचारकों के लिए सर्व खल्विदं ब्रह्म ही, यह विचारकों का दृष्टिपात ।
उन श्रीगुरुमूर्ति -दक्षिणामूर्ति को नमस्कार, 'नवीन 'स्वाधिकान भी, सर्वस्य भी।
नमामि श्रीगुरुपरंपरां नित्य नवल मेरे प्राण सर्वस्व न्यौछावर यही।।*
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सर्वात्मत्वमिति स्फुटीकृतमिदं यस्मादमुष्मिंस्तवे
तेनास्य श्रवणात् तथार्थमननात् ध्यानाच्च संकीर्तनात्। सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वत सिद्धयेत् तत् पुनरष्टधापरिणतं चैश्वर्यमव्याहतम् ।।
इस भजन में इसे सर्व-स्वत्व के रूप में स्पष्ट किया गया।
इसे सुनने से, इसका मनन करने से, इसका मनन करने जप करने कहा गया।।
जो महान महिमा के साथ है सर्वव्यापी सबकुछ स्वयं ही दिव्यता प्राप्त करनी चाहिए जो कुछ ।आठ गुना और अबाधित ऐश्वर्य में बदल जाती
श्री गुरुमूर्ति कृपामूर्ति करुणा सबकुछ कर जाती।।
अन्वयार्थ
इस दक्षिणामूर्ति नामक स्तोत्र में यह सब आत्मतत्व है ।
इत्यादि श्रुतियों में जो कहा सुना गमा सर्वोत्तमभाव है।।
वेदान्त में जो सार है, यही इस स्तोत्र में कहा गया ।
गुरुमुख श्रवण-मनन करने से एवं श्रवण- मनन में निर्णीत तत्व ध्यान -निदिध्यासन।
संकीर्तन-कथन से सर्वात्मभाव महाविभूति ऐश्वर्य कृपासाधन।।
प्राप्त हो जाता, उसी से स्वत: प्राप्त होता ईश्वर भाव: ।
अणिमा-महिमादि अष्टधा रूपों में होता परिणत ऐश्वर्य भाव।।
अपने आप सिद्ध हो जाता श्री गुरुमूर्ति कृपामूर्ति को नमस्कार।
कृपा सिन्धु करुणा सागर श्री गुरु देव मंदिर चरणों में 'नवीन' नमन बारंबार ।।
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वटविटपिसमीपे भूमिभागे निषण्णं सकलमुनिजनानां जानदातारमारात्। त्रिभुवनगुरुमीशं दक्षिणामूर्तिदेवं जननमरणदुः खच्छेददक्षं नमामि ।।
अन्वयार्थ चटवक्ष के नीचे जमीन में स्वयं बैठे हुए तथा वहीं पर बैठे हुए सभी मुनिजनों को साक्षात ज्ञान देने वाले, जन्म-मरण दुःख के छेदन में चतुर दक्षिणामूर्ति त्रिभुवन गुरुदेव को में नमस्कार करता हूँ।
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चित्र वटतरोमरूल वृद्धाः शिष्याः गुरुयरुवा गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तुच्छिन्न संशयाः।।
चिद्धनाय मोशाप वटमूलनिवासिने। सच्चिदानन्दरुपाय दक्षिणामूर्तये नमः ।।
इत्येम्
तेनास्य श्रवणात् तथार्थमननात् ध्यानाच्च संकीर्तनात्। सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वत सिद्धयेत् तत् पुनरष्टधापरिणतं चैश्वर्यमव्याहतम् ।।
अन्वयार्थ
इस दक्षिणामूर्ति नामक स्तोत्र में यह सब आत्मतत्व है ।
इत्यादि श्रुतियों में जो कहा सुना गमा सर्वोत्तमभाव है।।
वेदान्त में जो सार है, यही इस स्तोत्र में कहा गया ।
गुरुमुख श्रवण-मनन करने से एवं श्रवण- मनन में निर्णीत तत्व ध्यान -निदिध्यासन।
संकीर्तन-कथन से सर्वात्मभाव महाविभूति ऐश्वर्य कृपासाधन।।
प्राप्त हो जाता, उसी से स्वत: प्राप्त होता ईश्वर भाव: ।
अणिमा-महिमादि अष्टधा रूपों में होता परिणत ऐश्वर्य भाव।।
अपने आप सिद्ध हो जाता श्री गुरुमूर्ति कृपामूर्ति को नमस्कार।
कृपा सिन्धु करुणा सागर श्री गुरु देव मंदिर चरणों में 'नवीन' नमन बारंबार ।।
वटविटपिसमीपे भूमिभागे निषण्णं सकलमुनिजनानां जानदातारमारात्। त्रिभुवनगुरुमीशं दक्षिणामूर्तिदेवं जननमरणदुः खच्छेददक्षं नमामि ।।
अन्वयार्थ
वटवृक्ष नीचे जमीन आसीन तथा वहीं विराजमान ।
सभी मुनिजनों को देखते देते साक्षात विज्ञान ज्ञान ।।
जन्म-मरण दुःख भेदन -छेदन चतुर दक्षिणामूर्ति त्रिभुवन गुरुदेव नमस्कार।
पाहि पाहि पाहि रक्षणम्, नवीन कृपासागर गुणआगार।।
चित्र वटतरोमरूल वृद्धाः शिष्याः गुरुयरुवा गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तुच्छिन्न संशयाः।।
चिद्धनाय मोशाप वटमूलनिवासिने। सच्चिदानन्दरुपाय दक्षिणामूर्तये नमः।।
चित्त में बरगद के पेड़ की जड़ें,
बूढ़े, शिष्य, गुरु के जवान, गुरु का मौन, व्याख्यान, शिष्य, कटते संदेह।
चिद्दनाय मोशाप वातामुलानिवासिने। हे दक्षिणामूर्ति, सच्चे आनंद का स्वरूप!
इत्येम्
श्रीगुरुदेव परम पूज्य गुरुदेव 🙏 🙏 🙏 🙏
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