आनंदलहरी Poem by Dr. Navin Kumar Upadhyay

आनंदलहरी

भगवान शंकराचार्य कृत
आनंदलहरी


भावानुवाद
डा नवीन कुमार उपाध्याय













ऊं हरि ॐ

भवानी स्तोतुं त्वां प्रभवति चतुर्भिर्न वदनैः
प्रजानामीशानस्त्रिपुरमथनः पञ्चभिरपि ।
न षड्भिः सेनानीर्दशतमुखैरप्यहिपतिः
तदान्येषां केषां कथय कथम्स्मिन्नवस्रः ॥ 1
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा आपके गुणों का बखान करने में असमर्थ, हे भवानी महादेवी!
भले चर्तुमुख हैं, शिव त्रिपुरारी वे भी न कभी कर सकते तव नाम अर्थ।
पांच मुख, सुब्रह्मण्य, सुर सेना महीपाल षडानन ।
​आदि शेष, शीश सहस्र आनन भी न कर सकते दर्शन।
फिर हम साधारण जन कैसे करें आपके दिव्य स्वरुप का वर्णन।।
वेद ज्ञान विज्ञान महिमा गुणगान सौंदर्य विद्वानों के लिए जो अपरिमेय।
ऊं महिमा स्वरुप कथन निरुपण न कभी भी मन कर्म वचन से ध्येय।।
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देवी के अतुलनीय गुण.
घृतक्षीरद्राक्षमधुमधुरिमा कारपि पडैः
विषय्यानाख्येयो भवति रसनामात्र विषयः ।
तथा ते सौन्दर्यं परमशिवदृङ्मात्रविषयः
कथंकारं ब्रूमः सकलनिग्मागोचरगुणे ॥ २॥
घृत पय, द्राक्षा मकरंद मधुरता का नहीं हो सकता वर्णन।
अनुभव गम्य सदैव किंतु शब्द नहीं कर सकते निरुपण।।
शब्द कथन असमर्थ, केवल भगवान शिव अर्धांगिनी महानता सौंदर्य सकते जान।

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मुखे ते ताम्बूलं नयनयुगळे कज्जलकला
ललाते कश्मीरं विलासति गले मौक्तिकलता ।
स्फुरत्काञ्ची शाटी पृथुकटित्ते हाटकमयी
भजामि त्वां गौरीं नागपतिकिशोरीमविराटम् ॥ 3।।
हे गौरी, पान-रसपान से आनन अधराधर दर्शन निहाल।
युगल नयन कृष्ण कज्जल धारा मोहक विशाल।
शीश सुभग सुहाग कुमकुम, सुग्रीवा मौक्तिक माला।
सुनहरी पीली साड़ी, कटि चतुर्दिक मनोहर कमरबंद आवृत्त विशाला।।
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पूगीफलसमायुक्तं नागवल्ली दलैर्युतं कर्पूरचुर्णसंयोजनं ताम्बूलं
पूगीफलसमायुक्तं नागवल्ली दलैर्युतं कर्पूरचुर्णसंयोजनं ताम्बूलं
प्रतिगाॄह्यताम् ॥4।।

स्वादिष्ट सुखद महक वाले पान पौधा घर में शुभता और शुभकामनाओं का प्रतीक।
कोमल पत्तियाँ पान की बेल और सुपारी कर्पूर सटीक।।
पूजा में सोलह उपचारों के भाग के रूप में किया जाता अर्पित।।
भोजन या नैवेद्य अर्पित करने के बाद देवता को करते समर्पित ।।

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विराजन्मन्दार्द्रमकुसुमहारस्तनतति
नदद्वीणानादश्रवणविलसत्कुण्डलगुणा
नताङ्गी मातङ्गी रुचिरगतिभङ्गी भगवती
सती शम्भोरम्भोरुहचतुल्चक्षुरविजायते ॥5 ॥
मंदार तरुवर सुमन हार की माला आपके वक्षस्थल सुशोभित
करकमल युगल सुशोभित वीणा धारण, श्रवण विलसित कुंडल भ्राजित।।
कर्ण सूक्ष्म स्वरों को सुनकर हो जाते उद्वेलित तरंगित।
सौन्दर्य- लालित्य, रूप-सुषमा और चाल की मनोहरता, सदैव कृपा पूरित।।


नवीनार्कभ्राजन्मनिकनकभूषापरिकरैः
वृताङ्गी सारङ्गीरुचिर्न्यनाङ्गीकृतशिवा ।
तदित्पीता पीताम्बरललितम्ञ्जीरसुभगा
ममापर्णा पूर्णा निरवधिसुखैरस्तु सुमुखी ॥ 6॥
बहुमूल्य रत्नों से जड़ित स्वर्ण आभूषणों से सुशोभित सुभग शरीर।
बार रवि सम अरुण मनोहर दीप्तिमान नयन धीर वीर।।
सारंग शिशु स्वरुप कर लिए स्वयं भगवान शिव विमोहित।
विद्युतधार सम प्रभा चमक, सुनहरे पीत वर्ण बसन दमक ।
नुपुर झमकत चमकत, शुभता प्रतिमूर्ति! आपके लिए सबकी ललक
सर्वदा सुप्रसन आनन, आनंद प्रदान करें हे अपर्णा, महान देवी!
हम सब जय जय जयकार करते, आप की जय जयकार हो महादेवी!

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हिमाद्रेः संभूता सुल्लितकरैः पल्लवयुता
सुपुष्पा मुक्ताभिर्भ्रमरकलिता चालकभरैः ।
कृतस्थानुस्थाना कुचफलनता सूक्तिसरसा
रुजां हन्त्री गण्त्री विलासति चिदन्दलतिका ॥ 7॥
धराजधन्मा देवी हिमालय प्रकट रुपा, करकमल कोमल पत्रावलियां,
बने सुमन सब मुक्ता, आवृत्त चलित कलित भ्रंवरावलियां।।
सुदृढ सुपुष्ट स्तंभ के आकारा सुव्यवस्थित सरस कुच स्थला।
पयोधर उनके स्तन फलों के समान थे, उनकी वाणी सरस सुख प्रदायिनी मधुर फलदाई, स्थित सर्वरोग फला।।
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सपर्णमाकीर्णां कतिपयगुणैः सदर्मिः
श्रेयनत्यन्ये वल्लिं मम तु मतिरेवं विलासति ।
अपर्णैक्का सेव्या जगति सकलैर्यत्परिवृतः
पुराणोऽपि स्थानुः फलति किल कैवल्यपदवीम्।।8।
संसार में लोग प्रेमपूर्वक लताओं का पोषण करते, रहते निर्भर।
पत्रावली अनेक शुभ धर्म कर्म, सदैव सेवा हेतु रहते तत्पर।।
वह लता या लता जो अपर्णा या पत्ती रहित है, वह है पूजनीय ।
पुराणों में भी कहा गया उसे कैवल्यपाद प्रदायिनी माननीय।


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विधात्री धर्माणां त्वमसि सकलअम्नयजननी
त्वमर्थानां मूलं धनदानमनियाघ्रिकमले ।
त्वमादिः कामानां जननि कृतकन्दर्पविजये
सतां मुक्तेर्बीजं त्वमसि परमब्रह्ममहिषी ॥9 ॥


शुभ देवी का दूसरा नाम, भवानी, अर्ध नारीश्वर स्वरुप।
मोक्ष, आत्म-साक्षात्कार और शाश्वत आनंद प्रदाई सहज कृपा अनूप।
देवी सर्वोच्च कृपामयी सदैव ममतामई करुणामयी उदार।
सभी वेदों के मूल, वेदों में सर्वश्रेष्ठ तेरे ही संबंधित उद्गार ।।

आपके चरणों में, सभी संपत्तियों के स्वामी कुबेर करते साष्टांग प्रणाम ‌‌।
तुम सारी सम्पदा के स्रोत, सारी सृष्टि का किया निर्माण ।
आपने प्रेम- देवता मन्मथ को किया पराजित,
प्रेम का मूल ही है प्रेम ।
हे परम प्रभु प्रियतमा! आप ही भक्तों के लिए मोक्ष के बीज नेम क्षेम।।




प्रभुता भक्तिस्ते यदपि न ममलोल्मनसः
त्वया तु श्रीमत्या सदायमवलोक्यौऽहमधुना ।
पयोदः जलयं दिशति मधुरं चातकमुखे
भृशं शङ्के कैर्वा विधिभिर्नुनीता मम मतिः ॥ 10॥
यद्यपि अस्थिर मन के कारण मेरी भक्ति आपके प्रति नहीं स्थिर।
तथापि, आपके शुभ और आशीर्वाद कृपापात्र निरंतर निर्भर।।
कृष्ण घनश्याम जैसे बरसाते बादल करते कृपा प्रदान।
प्यासे चातक पक्षी को कर देते मधुर वर्षा वरदान ।।
हे महिमामयी, हे कृपामयी, हे करुणामई! ले ले निज अंक उदार हे माता।
जनकर सुधि लीजिए अंब! नहीं कोई कहीं मेरो त्राता।।

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कृपापाङ्गालोकं वितर तरसा साधुचरिते
न ते युक्तोपेक्षा मयि शरणदीक्षामुपगते ।
न चेदिष्टं दद्याद्नुपदमहो कल्पलतिका
विशेषः सामान्यैः कथामित्रवल्लीपरिकरैः ॥11।।

उत्साहपूर्वक निज जनों को दया का प्रकाश करो विस्तार।
जब ले ली तुम्हारी शरण ले ली, तुम्हें करना होगा उद्धार।
उपेक्षा का कोई कारण नहीं, यदि वह न समर्थ, हे कल्पलतिका!
विशेष रूप से निज शिशु समान समाज की सदैव तुम निर्वाहिका।।


1 2॥

महान्तं विश्वासं तव चरणपङकेरुहयुगे
निधायान्यन्नैवाश्रितमिह मया दैवतमुमे ।
तथापि त्वच्चेतो यदि मयि न जायेत सदां
निरालम्बो लम्बोदरजनि कं यामि शरणम् ॥ ॥
हे महादेवी उमा, मुझे आपके कमल पर बहुत भरोसा और विश्वास ।
इस संसार में और कुछ भी नहीं रखा केवल आपके प्रति ही मेरी आश।।
यदि आप मुझ पर कृपा न करेंगे, फिर मै जाऊं कहां अन्यत्र?
हे शिव अर्धांगिनी, गणपति - माता, संकटहर्तृ मेरी गति न यत्र -तत्र सर्वत्र।।
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अयः स्पर्शे लग्नं सपदि लभते हेमपदविं
यथा रथ्यापथः शुचि भवति गंगौघमिलितम् ।
तथा तत्तत्पापर्तिमलिनमन्तर्मम् यदि
त्वयि प्रेम्नासक्तं कथ्मिव न जायेत विमलम् ॥ 13॥


लोहा पारस स्पर्श करने पर तुरंत ही लौह स्वर्ण पद कर लेता प्राप्त।
जैसे पथ गली अशुचि जल गंगा बाढ़ में मिलने पर हो जाता निष्पाप।।
यदि वह पापाचार अन्तर्मलिंन, यह संभव न कदापि हो सकता।
वह न हो सकता पवित्रवर, आपका नहीं कभी अनन्य हो सकता।

पापों से मुक्त होकर भक्त का मन अशुद्धियों से हो ही जाता मुक्त।
यदि वह भगवती माँ की भक्ति से हो जाता संयुक्त।।
देवी की पूर्ण भक्ति मन अशुद्धियों को कर देती है विमल।
भक्ति प्रताप से ही हो जाती सकल कर्मजाल निर्मल।।

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त्वदन्यस्मादिच्छाविषयफल्लाभे न नियमः
त्वमर्थानामिच्छाधिकमपि समर्था वितरिते ।
इति प्राहुः प्राञ्चः कमलभवनाद्यस्त्वयि मनः
त्वदासक्तं नक्तं दिवमुचितमीशानि कुरु तत् ॥ 14॥



आपके अतिरिक्त अन्य किसी से इच्छित वस्तु प्राप्त करने का कोई न नियम।
आप वैभव इच्छा से भी अधिक वितरित करने में सक्षम ।।
आपसे यह विनय, हे ईशानाभार्या! अहर्निश मेरा मन अपने में लगाए रखना।
देवी स्तुति से होती पूर्ण भक्त हृदय की इच्छा
भक्ति और प्रार्थना।।
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स्फुरन्नानारत्नस्फटिकमयभित्तिप्रतिफल
तत्त्वदाकारं चञ्चच्छशधरकलासौधशिखरम् ।
मुकुन्दब्रह्मेन्द्रप्रभृतिपरिवारं विजयते
तवागारं रम्यं त्रिभुवनमहाराजगृहिणी ॥15।।



चमचमाते विभिन्न रत्न और क्रिस्टल दीवारें इनाम देती हैं
चन्द्रमा के आकार के कला वृक्ष का शिखर सार के आकार का है।
मुकुंद, ब्रह्मा और अन्य का परिवार विजयी है
हे तीनों लोकों के महान राजाओं की गृहिणी, आपका कक्ष सुन्दर है


हे महान देवी, आपका निवास विभिन्न प्रकार के प्रकाश से जगमगा रहे।
चाँद तक पहुँचने वाले मीनार के गुंबदों पर कीमती पत्थर जड़े ।।
ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवताओं से घिरा परम शोभनीय सुभग निवास।।
त्रिलोक साम्राज्ञी परमेश्वरी का कौन कह सकता वर्णन विलास।


निवासः कलासे विधिष्टमखाद्याः स्तुतिराः
कुटुम्बं त्रैलोक्यं कृतकरपुटः सिद्धिनीकरः ।
महेशः प्राणेशस्तदवनिधराधीशतन्ये
न ते सौभाग्यस्य क्वचिदपि मनागस्ति बराबर ॥ 16॥



कला, अनुष्ठान, वांछित भोग, अन्य महिमान्वित आराधनाओं में निवास विलास।
परिवार, अष्ट सिद्धि, तीनों लोकों के लिए पूर्णता का परिहास रास।
भगवान महेश सबके जीवन - स्वामी, त्रिदेव पूजित पृथ्वी - अधिपति।
आपके भाग्य बराबर कहीं कभी कुछ भी नहीं है गति।।

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वृषो वृद्धो यानं विपरीतमाशा निवेशनं
श्मशानं क्रीडाभूर्भुजगनिवहो भूषणविधिः
समग्रा सामग्री जगति विदितैव स्मररिपोः
यदेत्स्यैश्वर्यं तव जननि सौभाग्यमहिमा ॥ 17॥
वृद्ध वृषभ आपके वाहन आशा स्थान निवास विपरीत।
श्मशान तव पति क्रीड़ा स्थल, भुजंग भूषण न कभी हो सकती प्रतीति।
सामग्री समग्र समग्रता पूर्ण रुप, जगत जानता रहता सदैव।
ऐसा होने पर भी लोग पुकारते तुम्हें, सौभाग्यवती भार्या तुम एकमेव।।

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अशेषब्रह्माण्डप्रलयविधिनैसर्गिकमतिः
श्मशानेशवासीनः कृतभसितलेपः पशुपतिः ।
दधौ कण्ठे हालाहलमखिलभूगोलकृपया
भवत्याः संगत्याः फलमिति च कल्याणि कलये ॥ 18॥
प्राकृतिक ब्रह्माण्ड प्रलय विसर्जन पल मन कर लिए विस्तार।
श्मशान संकल्प लिया पूर्णतः कर लूं निज हृदय संभाल।।
संपूर्ण पृथ्वी के विष विषय को निज ग्रीवा में कर लिया धारण।
हे देवी महाकाली, यह आपके संग संबंध का फल, किया संपूर्ण निवारण 18॥


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त्वदीयं सौन्दर्यं निरतिशयमालोक्य परया
भैयैवासीद्गंगा जलमयतनुः शैलतनये ।
तदेतस्यास्ताम्यद्वदनकमलं वीक्ष्य कृपया
प्रतिष्ठामातेनेनिजशिरसिवासेन गिरीशः ॥


हे पर्वतराज- पुत्री पार्वती! परिपूर्ण गंगामुख गर्वहीन बने, तव महान सौंदर्य देखकर।
भगवान गिरिराज ने दया करके दिया स्थान, शीश पर तुम सदैव निवास कर।।
क्यों रहोगी तुम करुणा ग्रस्त, क्या तुम्हारा नहीं पति अभिमान अधिकार?
उसके सिर पर रहो विराजमान हमेशा, तुम्हारा भी पति स्वतंत्र निर्विकार।।

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विशालश्रीखण्डद्रवमृगमदाकीर्णघुसृण
प्रसूनव्यामिश्रं भगवति तवाभ्यङ्ग्सलिलम् ।
समादाय सृष्टा चलितपदपांसून्निजकरैः
समाधत्ते सृष्टिं विबुधपुरपकेरुहदृशाम् ॥20॥




विशाल कीचड़ के टुकड़े तरल हिरण नशे में भीड़
हे प्रभु, आपके स्नान का जल फूलों से मिश्रित है।
वह अपने हाथों से, अपने चलते पैरों की धूल इकट्ठा करके बनाई गई थी
वह देवताओं की नगरी में एक वृक्ष का रूप धारण कर लेता है



हे भगवती, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा स्वर्ग की सुन्दर युवतियों का करते निर्माण।
आपके दिव्य चरण रज को निज कर कमल किया परित्राण।।
तेल स्नान करते समय आपने जिस जल से स्नान किया, वह सुगंधित ।
रक्तचंदन -कस्तूरी मिश्रित केसर से सुगंधित मिश्रित।
विधाता, अन्य देवता भगवान शिव से धूल की एक बूंद पाने के लिए करते तपस्या ।
माता के दिव्य चरण। यह धूल और दिव्य अभिषेक, न अन्यथा।
दिव्य माता, दिव्य सुंदरता भगवती महादेवी, साम्राज्ञी त्रिलोक।
सभी शुभ मंगल, समृद्धि, प्रसन्नता, आनंद, परम विशिष्ट लोक।।
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वसन्ते सानन्दे कुसुमितलताभिः परिवृते
स्फुरन्नानापद्मे सरसि कलहंसालिसुभगे ।
सखीभिः खेलन्तीं मलयपवनान्दोलितजले
स्मरेद्यस्त्वं तस्य ज्वरजनितपीडापसरति ॥ २1॥



वसंत खुशी से झूम रहा, फूलों की लताओं से आवृत्त
झील में कई प्रकार सरसिज, श्वेत हंस सुभग शोभित।।
मलय समीर से हिलाते मिलाते, करुणा वारि करती क्रीड़ा सखियों संग।
हे प्रसन्नानना महादेवी! करें कृपा'नवीन 'निरंतर रहें रत तेरे चरण महावर रंग।।
शरण शरणागत आपके, लीजिए अंक समाय।
'नवीन'वासना उर बसै, मैं सुत तुम प्यारी माई।।
भक्ति भावना युक्त हो, समाईहैं जो परम रस।
कुछ नहीं कभी चाहिए, बसैं मातुश्री चरण यश।

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