अधुरी ख्वाहिश Poem by Ashish Singh

अधुरी ख्वाहिश

कब तुझ से मैंने ख्वाहिशो का जहाँ मांगा था
बस तु साथ रहे हमेशा इतना ही तो मैंने चाहा था

जो तुझको इतना ही चाहतो से परहेज था
तो फिर क्यू मारा कंकर
ठहरा पानी सा था मन मेरा
कब उसमे कोई शोर था

बस तेरी बाहों के फेरे
शामो के वो खामोश अंधेरे
सांसो का बस शोर हो
हम ही हो दरम्या तेरे मेरे

तेरे मासूम मुस्कानो से
कुछ कहते हुए रूक जाना
जाने क्या सोच मन ही मन
हाए तेरा फिर मुस्काना

वो शर्म की लाली गालो पर
कुछ जुल्फो को सहलाना
देख रहे हैं हम की नही
नजरे चुरा वो देख जाना

चाहत कहो या ख्वाहिश
तुझमे मुझको खो जाना है
जैसे है मिलते गगन जमीं
ऐसे तुमसे मुझको मिल जाना है

एक है ये अधुरी ख्वाहिश मेरी
हो सके तो पुरी कर जाना
बिन तेरे जीने से अचछा है
तेरे नाम पे ही मर जाना! ! !

© Mγѕτєяιουѕ ᴡʀɪᴛᴇR✍️

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