यादें
लाइब्रेरी, ये शब्द सुनते ही ऐसे लगता है की किसी ने यादों की अलमारी को खोल दिया,
वही अलमारी जिसे मन में कहीं छुपा के रखा है।
जब भी वो अलमारी खुलती है तो वो सब कॉलेज के दिन याद आ जाते हैं।
लाइब्रेरी उन दिनों रोजाना की दिनचर्या का हिस्सा होती थी।
कितनी छोटी छोटी और मामूली सी बातें भी अब बहुत खास लगती हैं।
मैं और मेरी...... भी अक्सर यहीं मिला करते थे घंटो बैठ कर बातें किया करते थे।
हर रोज हम किसी किताब को लेने या वापस देने के बहाने पहुंच जाते थे।
और उस केवल 5 मिनट के रास्ते में भी हम हंसने- हंसाने के तरीके ढूंढ ही लेते थे।
चाहे फिर वो लाइब्रेरी जाने के लिए की गई छोटी सी रेस हो या फिर पहले किसने काम वाली किताब ढूंढी, या पहले किसने अपना लेने-देने का काम खत्म किया।
मतलब बताने पर आए तो इतना कुछ याद आ जाता है।
वैसे हम तो इन छोटी- छोटी बातो में ही काफी खुश हो जाते थे, पर कुछ लोग अपने स्पेशल दोस्तो से मिलने को यही जगह पसंद करते थे।
बिलकुल हमारी तरह..वो भी अलग ही मजा था।
उसका मेरे लिए कुछ बना कर लाना और कोई देख ना ले इस डर से किताब के बहाने लाइब्रेरी में आकार अपने हाथों से खिलाना।
जब ये सब लम्हे गुजार रहे थे, तब इतना खास एहसास नहीं होता था,
पर अब तो जैसे एक अलग ही खुशी मिलती है, उन दिनों को याद कर के।
जब भी कॉलेज की बात होगी, मेरे लिए तो लाइब्रेरी का याद आना लाजमी है।
आखिर उन सुकून में सिमटी दीवारों पर सजी रैक से झांकती किताबों की दुनिया को कैसे भुला जा सकता है।
वो दिन हमेशा एक मिठी सी याद बनकर मन की अलमारी में बंद रहेंगे और वक्त वक्त में पुरानी तस्वीरों जैसे जब भी याद आएंगे, चेहरे पर एक मुस्कान छोड़ जाएंगे।
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