तलाश Poem by Ashish Singh

तलाश

कभी तो लगता है जैसे
खुद से ही अंजान है
खुद को ढूंढ़ रही खुद मैं
हाय कितनी मासूम और नादान है

कभी आंचल, कभी चंचल
लिखती है जीवन का हर पल
कभी अर्पण, कभी दर्पण
कभी लिखती है संपूर्ण समर्पण

तलाश जो उसकी समझ जाऊ
चाहत उसकी पुरी कर जाऊ
अब तो उसमें ही उलझ गया हू
था आवारा अब सुलझ गया हूं

जाने क्यु मैं खो रहा हूं
ऐसा लगता है उसका हो रहा हूं

आज पढ़ रहा था उसे
सोचा कुछ जान सकु
शायद क्या है मन में उसके
थोडा तोह पहचान सकु

शब्द आईने से उसके
उसके मन का दर्पण है
एक कशिश है छुपी सी
जाने कैसी तर्पण है

ढूंढ रही है क्या ना जाने
कुछ साफ भी नहीं बताया है
हाँ तलाश है किसी की उसे
इतना तो समझ आया है

जाने क्यू एहसास उसके
मुझको यू खिंच रहे हैं
बहोत कुछ शब्दो से उसके
हम भी तो सिख रहे हैं

© Mγѕτєяιουѕ ᴡʀɪᴛᴇR✍️

तलाश
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success