पिघलते रिश्ते Poem by Ashish Singh

पिघलते रिश्ते

लोग आते है चले जाते है
हम नादान है जो ठहर जाते है
क्या किसी से गिला शिकवा रखना
मौसम तो क्या यहाँ लोग भी बदल जाते है

कौन करे ये फैसला
कौन सही है ओर कौन गलत
बदल जाती है जब जरूरते
देखने तक के नजरिए मे आ जाता है फर्क

एक कहे मैं कम नही तो
दुजा शेर पे सवा शेर है
समझने को कोई राजी नही है आज
ये कैसा वक्त का उल्टा फेर है

दिल की कोई किमत ना रही
जान की किसको दरकार है
पुछे जाते है तब तक ही आप बस
जब तक आपकी सरकार है

कुआँ मे पानी ना हो तो
उसमे भी कचरा डाला जाता है
मीठा था पानी कुआँ का भला
किसको याद फिर आता है

शरीफो का इस जमाने मे
आज कोई काम नही
खुद को मिटा दो तो भी होता
किसी का यहाँ नाम नही

गैर तो यु ही बदनाम है
इल्जाम तो अपने लगाते है
बन्दूक तो खुद की होती है
बस कांधा दुजे का लगाते है

©आशीष सिंह

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