सितम-ए-मोहब्बत Poem by Ashish Singh

सितम-ए-मोहब्बत

जब कोई अपना सब कुछ लुटा दे किसी पे
और उस इंसान को आपकी कदर नही होती
तो तकलीफ होती है...बहोत ज्यादा तकलीफ

उस वक्त ना सामने वाले से ज्यादा
खुद पर गुस्सा आता है
खुद को ही कोसने का
खुद पे ही गुस्सा निकालने का मन होता है

जब कोई किसी को चोट पहुंचाता है ना
तो सिर्फ भरोसा नही टुटता
वो इंसान भी टुट जाता है
जिसने भरोसा किया होता है

जान से मारने से भी बड़ा गुनाह होता है
किसी के भरोसे को मार देना

और देखो यु तो हर गुनाह की सजा होती है
लेकिन इस गुनाह की कोई सजा नही है

उल्टे लोग आपको ही गलत बोलेंगे
की इंसान पहचानना नही आता आपको

अरे किसी के चेहरे पे थोड़े लिखा होता है
की वो धोकेबाज़ या अहसान फरामोस है

लेकिन वो आपके दिल पर हमेशा के लिए
लिख जाता है की आप नादान है

अच्छा होता है कभी -कभी
कुछ लोगो का हमारी जिन्दगी से चले जाना

उस वक्त जब हम अकेले होते है
दर्द और तकलीफ मे होते है
तब हम खुद से मिलते है
खुद को टटोलते, समझते है

खो कर मैंने तुझ को, खुद को पाया है
क्या कहे की कैसे मर के जीना आया है

ना आना तु अब लौट कर कभी
फिर से तेरी आदत हो जाए ना
इस बार तो संभाल लिया खुद को
दुसरी बार कहीं संभाल पाए ना

अच्छा ही हुआ जो लगी ठोकर
सबक ये भी सीख गए
तुमने सिखा गिराना
हम गिर के संभलना सीख गए

नही है जरूरत अब तेरी मैं खुश हूं विरानो मे
नही गूंजती बाते अब तेरी मेरे कानो मे

झुठ होगा बोलना की तुम्हे याद नही करते
आखिर मेरी मोहब्बत हो तुम

हाँ लेकिन अब मिलने की आग मे नही जलते
बुझ गई है आग अब बस राख हो तुम

©आशीष सिंह

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