यादों की महफ़िल Poem by Ashish Singh

यादों की महफ़िल

यादें

जब भी ये रात आती है
क्या बताऊ तुम कितना याद आती हो
बहोत कोशिश करता हूं सब भुल जाऊ
पर ये कमबख्त यादें है

जीतना भूलने की कोशिश करता हूं
उतना ही और तुम्हारे पास ले जाती है

ऐसा लगता है सिर्फ मुझपे ही बरस रहा है सावन
और सिर्फ मैं ही भींग रहा हूं

कितने हसीन थे ना वो भी पल
जैसे कल की ही बात हो

तेरी पायल की छनक तेरी चुड़ी की खनक
कभी गिरती कभी उठती
ऊफ तेरी वो पलक

तेरा वो लहरा के मेरे करीब से जाना
आंचल का तेरे मेरे चेहरे पे आना

खामोशीयो मे भी हम कितना कुछ समझ जाते थे
अब समझता नही है कोई मेरा चिल्लाना

आज भी याद आती है वो आखिरी मुलाकात
लगा था रोक लोगी तुम थाम के मेरा हाथ

ना तुम कुछ बोली ना हम भी थमे
बढ गये आज कितने दरम्यान फासले

बताओ ना क्या तुम्हे भी मेरी याद आती है
क्या तुम तक मेरी आवाज जाती है

अच्छा नही लगता कुछ खुद को खो रहा हूं
होके तुमसे जुदा मैं खुद से जुदा हो रहा हूं

क्या दोगी इजाजत तुम्हारे पास आ जाऊ
रोक तो ना दोगी जो सिने से लगाऊ

कर लेना जीतने शिकवे शिकायते है
मैं कुछ भी ना कहूंगा
सच तो ये है की अब तुम बिन
ख्वाबों में भी मैं ना जी सकूंगा

©आशीष सिंह

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