मैं यूँ हीं कहीं, किसी जगह, अनजान राहों में
अपनी ही नज़र से गिरी आंसूओं की बारिशों में
तेरे ख़त को भिगोता रहा
शब्दों के दाग़ को धोता रहा
मिटा न सका उन यादों को दिल-ओ-दिमाग़ से
अपनी ही अश्क़ों में अरमानों की कश्ती डुबोता रहा
भीगता रहा फिर भी थे प्यासे मन के भाव
ग़ैर-ए-मोहब्बत पा के भी भरे नहीं दिल के घाव
अब तो जख़्म में भी तेरी मौजूदगी सी लगती है
दर्द में भी थोड़ी कमी सी लगती है
खुद से सहला लेता हूं जख़्म को
तेरे आख़िरी निशानी मान चूम लेता हूं जख़्मों को
न जाने कितने मासूम ख़्वाहिशें
एक उम्र गुज़ारना चाहतीं थीं तुम्हारी बाहों में
मगर ऐसा हो न सका और अब ये हालात हैं
मैं यूँ हीं कहीं, किसी जगह, अनजान राहों में...
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