जब पन्नो को पलट कर देखता हूं
शब्दों के दाग बहोत गहरे मालूम पड़ते हैं
काश कोई मेरे मन के पन्नो को भी उलट कर देखता
ना जाने कितने हालातों के दाग उभरे हैं
पन्ना भी खामोश है मन भी खामोश है
कुछ जख्मी शब्दों को भी सहलाना शेष है
या फिर जिंदगी की एतबार आए तो
रद्दी वाले से सब पन्ने बेच दूं
या फिर मन और मुस्कान के बीच एक लकीर खींच दूं
खुद को पहन कर तैयार हुए अरसा हो गया
सोचता हूं अब ये कुर्ता भी फिंच दूं
कुछ नया होना चाहता हूं पर डरता हूं, पुराना खोने से
यादों की तकिए हैं जिंदगी में, भीग जाता हूं उनपर सोने से
उभरती हैं जो रोज रात के दर्पण में तस्वीरें
सोचता हूं उन्हें उजालों से बचा लिया जाए
गहरी जो सांसे चल रहीं हैं इन दिनों
सोचता हूं अब इन्हें भी लिख दिया जाए
बदल रही है सड़के अब जिंदगी की
डरता हूं किसी राह में गुम ना जाए
मैं क्या था क्या हुआ अब क्या हूं
कुछ लिखे पुराने अब सच मालूम पड़ते हैं
जब पन्नो को पलट कर देखता हूं
शब्दों के दाग बहोत गहरे मालूम पड़ते हैं...
: -आनन्द प्रभात मिश्रा
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