सोचता हूँ..
जो अब तक न लिखी गई हो
वो लिखूं
अपने हृदय की वो सारी प्रीति लिखूं
जो तुम्हारे लिए हैं
कोरे पन्ने पर नहीं, फ़िक्र की नरम पन्नों पर
जिक्र तुम्हारा लिखूं
सोचता हूँ अब तक जो शेष रहा वो लिखूं
मौन लिखूं, खामोशियाँ लिखूं
एहसास लिखूं, भावनाओं को लिखूं
तुम पढ़ना और मेहसूस करना
कि मेरे ख़्यालों की सियाही से लिखा हुआ ये कोरा कागज नहीं,
दरसल ये वो कागज़ात है जो मेरी जिंदगी की
वसीयतनामा तुम्हें सौंपता है
और अब से तुम इसकी मालकिन हो, हकदार हो
जीवन के उस क्षण को भी सोचता हूँ..लिखूं
बस तुम्हारा नाम सोचूं
और पूरी जिंदगी लिखूं
सोचता हूँ
जो अब तक न लिखी गई हो
वो लिखूं
तुम्हारे नाम के साथ अपना नाम लिखूं
सोचता हूँ....
(आनन्द प्रभात मिश्र)
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem