हर रात ख़्वाब को ख्वाबों से सजाया था
चांदनी रातों में अक्सर तुम्हे चाँद दिखाकर
चाँद को चाँद से मिलाया था..
पर अब न तुम हो न वो हसीन रात
हाँ मग़र याद आता है जब तुम थे
तब पेड़ से छुप कर चाँद भी शर्माया था..
अब फीका सा लगता है आसमान का रंग
अब उदास सी लगती हैं ये फ़िज़ाएं
हाँ मग़र तुम्हारी जुल्फों की ख़ुशबुओं ने
फ़िज़ाओं को महकाया था..
वो खूबसूरत रात बन ठन के इतराया था
याद है मुझे जब हवाएं गुम थी
पेड़ पत्ते चुप थे
तब तुम्हारी मुस्कान ने ठंढक का एहसास कराया था..
अब न वो बारिश होगी न वो शाम होगी
जिनमे तुम थे अब न वो रात होगी..
कुछ पल शेष रहा है जो ख़ालीपन सा है
जब तलक तुम थे सब कुछ खुशनुमा सा था..
तुम्हारे बगैर बस इंतजार लिए
वक़्त की चौखट पर बैठा हूँ
जो गुजर गया वो वक़्त चार दिनों में
सब कुछ जैसे एक सपना सा था
|| आनन्द प्रभात मिश्रा ||
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