An Invisible Woman Poem by Alok Agarwal

An Invisible Woman

ये बात है भटिंडा/बठिंडा शहर की। सितंबर-अक्तूबर 2024 का महिना था। मैं अपने परिवार के साथ एक मेले मे जा रहा हथा। बच्चों मे कौतूहल साफ़ झलक रहा था। ‘झूली' का शौक नया नया लगा था। मुझे भी अपनी नयी SUV गाड़ी से गेड़ा लगाने का उत्साह था। मेरी अर्धांगिनी इस उत्सव मे मेरा साथ दे रहीं थी।
टिकिट काउंटर पर एक महिला टिकिट की गुज़ारिश कर रही थी। उसके पास पैसे नही थे और उसका नन्हा बालक (जो तकरीबन 6-8 बरस का होगा) ज़िद कर रहा था की उसको झूला झूलना है। ऐसा उसकी माँ का कहना था। टिकैत काउंटर पर जो महिला बैठी थी उसने हिचकते हुए इशारा किया की मेन गेट पर बैठे बाउंसर से अपनी अर्जी डालें। उसने बेमन से टिकिट न देने पे अपनी असमर्थता जताई। उसके भाव से ऐसा प्रतीक हो रहा था जैसे उसको दिन के अंत पे टिकट बिक्री की रिपोर्ट अपने मालिक को देनी होती होगी। शायद उसका मालिक ने गिन के टिकिट दिये होंगे। टिकट काउंटर पर बैठी हुई महिला की बेबसी मे एक आह दबी हुई थी, की जैसे मानो वो भगवान से प्रथना कर रही हो, की ‘हे प्रभु। बाउंसर भैया से बोल दो की इसको जाने देंगे। एक टिकट से कितना ही नुकसान हो जायेगा।‘

मैं टिकट लेते वक्त इस आशा मे बैठा था की वो मेरे से टिकट के पैसे की गुज़ारिश करे और मैं ऐसे नाटक करूँ की जैसा मैंने उसको देखा ही नहीं। जैसे की वो अदृश्य हो।

खैर, मेरी मनोकामना पूरी नही हुई।

टिकिट चेक करने वाले बाउंसर भैया अपनी मूछों पर ताव दिये जा रहे थे और सके टिकिट देखते जा रहे थे। उनके चेहरे पर रावण वाला अट्टाहास दाढ़ी और मूछों से बाहर झाँक रहा था। मैं मन ही मन मूँद-मूँद मुस्कुराया की अब उस महिला कि ‘No Entry' हो ही जायेगी।

वो महिला अपनी अर्जी बाउंसर भैया के सम्मुख रखती हैं। मुझे लगा कि वो अपने मासूम बच्चे को सामने रखकर ढाल बनाकर अपनी अर्जी प्रस्तुत करेंगी - पर हमारी नायिका ने ऐसा नहीं किया। बाउंसर भैया ने अपने चेहरे से ना का इशारा करा और उस इशारे के बहाने अगाल-बगल देखा कि कोई देख तो नहीं रहा। जब उनको ऐसा लगा कि कोई नही देख रहा - तब उन्होने उस महिला को हाथ से आगे जल्दी बढ़ने का एक लघु इशारा डरते-डरते किया।

लानत है ऐसे मर्दांगी पर। ये किसको धोखा दे रहा है, ऐसे तो सारा सिस्टम हिल जायेगा। खुदा का तो खैर करो। फिर ऐसे लोग उम्मीद करते हैं कि स्वर्ग मे इनको जगह मिलेगी। धुत्कार है। जब अगाल और बगल देखा था तो ऊपर भी देखना था ना। इशवर तो ऊपर से बैठे सब देख रहा है ना। ऐसे लोगों कि वजह से ही AI/ QR/ डिजिटल इंडिया का निर्माण हो रहा है। अगर ये मेला ऑनलाइन app के माध्यम से टिकट वितरण करता और smartphone पर QR कोड आता, और गेट पर QR स्कैनर द्वारा turnstile खुलता; तो क्या मजाल ये security breach होता। सरकारी बाबुओं को सब गाली देते हैं, कि भ्रस्टाचार चरम सीमा पर है - और प्राइवेट मे? ये जो मैंने अपने सामने देखा, ये क्या था? 30 रुपये कि टिकट को सरकारी बाबू यही 10 रुपये लेकर अनादर जाने देता तो हँगामा है क्यों बरपा?

मेरी सुनता ही कौन है। जब ऊपर बैठा भगवान ध्यान मे मगन है, तो मैं क्या करूँ?

गेट के अंदर जाते-जाते, अपना टिकट चेक कराते समय - मैं उसकी आँखों मे अपनी अपनी आँखें मिलायी, और उसको आँखों के इशारों से उसको बता दिया कि मैंने उसकी ये हरकत देख ली है। वो भगवान कि नज़रों से बच सकता है, लेकिन मेरी गीध सी निगाहों से नहीं। उसने भी उसी क्षणिक नयन मटक्के मे मुझसे कहा कि, ‘जाओ, अपना काम करो।‘

उसको नौकरी का कोई भय नहीं था। शायद 500 रुपये दिहाड़ी कि नौकरी कहीं भी मिल जाती होगी।

मेले के अंदर अब हाथ से घुमाने वाले झूले के लिए टिकट लेना था। यहाँ अलग ही ड्रामा चल रहा था। जो मनुष्य हाथ से झूला घुमा रहा था, वो टिकट नहीं बेच रहा था - वो सबको इशारा कर रहा था, कि टिकट वहाँ से मिलेगा। इशारा करते करते वो सब बच्चों को झूले पर बैठा लेता था, जैसे उसको हर मनुष्य मे ईमानदारी स्वरूप ईश्वर दिखायी देते हों। मेरे को लगा पहले टिकट, फिर सवारी। पर भैया जी had no concern.

उसका केवल एक ही ध्येय है - झूले को घुमाना। टिकट लोग अपने आप ले लेंगे और उसको दे देंगे। झूले का पहिया नहीं रुकना चाहिए। चक्र चलते रहना चाहिये।

हमने पैसे देकर टिकट लिया और इसी समय हमारी इस कहानी की नायिका भी झूले को गोल-गोल घूमने वाले भैया के चारों ओर घूम रहीं थीं। अपने चीर-परिचित अंदाज़ मे उन्होने उसको बोला की हमार लड़का को बाइठाए दियो, उसको झूले की ज़िद है और टिकट के पैसे हमपर नहीं हैं। ये अजीब सच की देवी है, जब वो बिना टिकट लिए सब को बैठा ही रहा है, तो आप भी अपने लड़के को बैठा दो। जब वो टिकट माँगे तो कह देना भूल गए, पैसे नहीं हैं, sorry, इत्यादि। पर नहीं। इनको तो पहले ही सब सच बताना है। अगर वो माना कर दे तो? शायद, उनके पास उस मेले का hack है। उनको पता है, अपना काम कैसे करवाना है। इनको बाद की ज़िल्लत से डर लगता है। ये नहीं चाहती की बाद मे फजीहत हो।

हमारे झूले वाले भैया, बेमन से कहते हैं की उसको बैठाओ। मैंने सोचा की टिकट बेचने वाले भैया अगर इसकी इस हरकत को देख लें, तो आज यहीं तमाशा बन जायेगा, आऊस इसकी नौकरी चली जायेगी।
मेरे को लगता है, की आज जैसे सारा ज़माना मेरे साथ साजिश के mood मे था। टिकट वितरक ने इस घटना क्रम को देखा तो जरूर पर ignore मार दिया। ये सब साले एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं।

न ही किसी मे कोई morals हैं, न ही भगवान का डर, नौकरी का डर, इज्ज़त का डर, कुछ भी नहीं। Simple, Plain ज़िंदगी। ये मैं ही हूँ, जिसने अपने मानस मे पालतू से भ्रांतियाँ पाल रक्खी हैं। अगर बिना पैसे के ही सारे काम हो जाएँगे, तो फिर पैसा कमा के क्या मिलेगा। 48 hour work week,72 hour work week,90 hour work week वाली debate का क्या? The societal fabric will be ripped apart.

ये महिला किसी को दिखती क्यूँ नहीं है। पूरे मेले मे कोई objection क्यूँ raise नहीं कर रहा। Why is it only me who is concerned about the ongoing malpractice? What sector of the populace do I belong to?

It would have been better had there been more educated people at this मेला।

Leave that hustle-bustle to thy self. Let me tread my own path.

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Now, I have tried to portray an incident of my life in a subtle sarcastic manner. But I would still like my audiences to refrain from judging me or develop some pre-conceived notions about me.

वो क्या है न, की ज़माना खराब है। लोगों को भटिंडा और बठिंडा मे भी राजनीति दिख सकती है। भारत और India के वाद-विवाद का सिलसिला अभी थमा नहीं है। मैं शुक्रगुजार हूँ अपने माँ-बाप का जिन्होने मेरा एक ही नाम रखा; अन्यथा क्या पता आज से कुछ सौ वर्ष बाद - लोग मेरे नाम पे भी debate करते।

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