'आईने का अक्स' Poem by Aakash ‘Vyom' Goel

'आईने का अक्स'

एक बार मेरे आईने ने मुझसे ही कहा था
ख़ुद से मिल अब तक तू अकेला रहा था

कहा तो पर ठौर उसका सीधा कहाँ था
वो बहुत दूर था मुझसे खड़ा मैं जहाँ था

पूछा उसने अरसों से अकेला मैं कहाँ था
कहने को साथ चलने को पूरा जहाँ था

खुदी के पीछे मैं ख़ुद छुपा हुआ जहाँ था
उस मैं में ‘मैं' के सिवा और कुछ कहाँ था

अब कहने को कुछ भी तो न बच रहा था
लगा दुनिया थी साथ मैं अकेला कहाँ था

मेरे अक्स ने मुझसे ज़्यादा नहीं कहा था
पर अब वो न वो और न मैं ‘मैं' ही रहा था

अक्स से मैंने पूछा कौन सी रोशनी पीता है
कौन कौन सी मौहलतों को पाकर जीता है

बोला मै तेरा बिंब हूँ हिसाब हूँ, रूह हूँ तेरी
तेरा सब कुछ हर रोज़ मुझ पे भी बीता है

अक्स ने मुझसे पूछा बता अभी बजा क्या है
कर दूँगा आज पूरी बता तेरी रज़ा क्या है

मैं बोला बजा कुछ हो, ज़्यादा नहीं चाहिए
एक बार तुझसे मिलने की वो सज़ा क्या है

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