‘पितृत्व - पापा की ममता' Poem by Aakash ‘Vyom' Goel

‘पितृत्व - पापा की ममता'

दो हाथ भर था मैं उनके दो हाथ में
सीने से लगाये रक्खा उन्होंने प्रातः में
मात पिता को जन्म दे थक गया था
सो पिता के सीने से चिपका ठाठ में

सीने का विस्तार जैसे समंदर हो कोई
हृदय धड़के के अयोधन* अंदर हो कोई
हाथ से हौली हिलोरें परोसते रहे पापा
गर्व ऐसा मस्तक पे के सिकंदर हो कोई

*युद्ध, रणभूमि

सुलाते रहे मुझे नूतन पितृत्व^ के चाव में
झुलाते रहे मुझे भीगे भीगे हुए से भाव में
धन्य हो अश्रुओं को रोक टोक रक्खा था
अन्यथा आना पड़ता हम सभी को नाव में

^पिता होने का भाव

बाहर से कठोर भावहीन सूरत हो कोई
पर अंदर स्नेह ममता की मूरत हो कोई
जब माँ को ही सदा 'ममता' सोचा किए
पितृत्व के पूर्ण भाव को समझे कैसे कोई

कोई रात जब बीती मेरे कुछ खाँसने में
उनकी बीती मुझसे भी ज़्यादा जागने में
शत करवटें बदल भी रात बीतती कैसे
व्यस्त रहे तड़पते हुए मेरा मुँह ताकने में

स्वयं जले बार बार पर कष्ट नहीं कोई
मुझपे (नख* सी) आँच भी आने पाये नहीं कोई
दायित्व पुरुषोत्तम बने गर्व से पापा
दैनिक ढोये शत शत भार पता नहीं कोई

*नाखून

मैंने किये बहुत दुस्साहस ज्ञान लेने में
हमेशा पास खड़े को साक्षी मान लेने में
पितृ उत्तरदायित्व* को समझे ही बिना
एक दिन बनूँगा पापा सा ये ठान लेने में

*ज़िम्मेदारी

मुझे खिलाने में स्व निवाला छोड़ दिया कोई
खुश रखने में गुल्लक नावा* फोड़ दिया कोई
कैसा अपार भार चढ़ाता पिता पूत पे देखो
सपनों की ख़ातिर मेरे, अपना^ तोड़ लिया कोई

*जमापूँजी, बहिखाता
^अपना सपना

मैंने नक़ली बंदूक से गोली दागी छाती में
वो भागे फिरे चारों ओर मात्र ही धाती^ में
मेरे अट्टहास और घोड़ा बनने के बीच
हर खेल हारे बार बार, जीते प्रेम पाती* में

^लंगोटी
*ठीक अनुपात, उचित मात्रा

गोदी विराट के स्वर्णिम सिंहासन हो कोई
बैठ लूँ एक बार तो हिला पाए ना जो कोई
शनैः शनैः बड़ा हो चला गुम गया बचपन
खेद के सबसे पहले मैंने राजगद्दी ही खोई

भान हुआ व्यस्त रहते पापा काम काज में
घर चलता उनकी छत्रछाया के ही राज में
कंधों बोझ बहुत था पर माथे शिकन नहीं
कल का भी आश्वासन उनके हर आज में

है कुमारावस्था में पुत्र परिपक्व भी कोई
पापा से संघर्ष हुआ, बात छोटी ही कोई
मेरा कहा मानना पड़ा, चुप रह गये वो
मैं प्रबल हो प्रसन्न था, पर टीस थी कोई

इस बार असली सी गोली दागी सीने में
पहली बार देखा पापा को रोते जीने में
ये कैसा द्वन्द, जीत में हार का था स्वाद
करनी मन की थी पर अब दर्द था सीने में

स्तब्ध माँ ने हस्तक्षेप ना किया लो कोई
मौन सब खड़े के रण हार गया हो कोई
हारके भी संतुष्ट वे के अब बड़ा हुआ पुत्र
मुझे उड़ा निज पंख काट लिया हो कोई

बचपन से मेरे लड़कपन के सफ़र करने में
और बूढ़े हो चले मेरे जीवन में रंग भरने में
श्वेत बाल झांकते सिर की खिड़कियों से
झुक गया कटिभाग* मुझे ही खड़ा करने में

*कमर

बाहर से कमज़ोर भावहीन सूरत सही कोई
और अंदर स्नेह ममता की मूरत वही कोई
जब पिता की ममता तले संसार सारा फिर
पितृत्व के पूर्ण भाव को समझे कैसे नहीं कोई

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