A-048. जब तुम जीने की ठान लेते हो Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-048. जब तुम जीने की ठान लेते हो

जब तुम जीने की ठान लेते हो 17.1.16—4.32 AM

जब तुम जीने की ठान लेते हो
किसी का कहना मान लेते हो

सुनने के अलावा भी कुछ सुनता है
ताने बाने बुने जाते है कुछ बुनता है

किसी का दर्द तुम्हारा दर्द बन जाता है
होना ही किसी का मरहम बन जाता है

दिखने के अलावा भी कुछ दिख जाता है
तेरे इस होने पे ही दूसरा भी रीझ जाता है

समर्पण का भाव घर करने लगे
तुम्हारे अंदर जब कोई मरने लगे

अदब और सत्कार जगने लगे
जब खुशबू कहीं बिखरने लगे

मिलने की चाहत बलवान हो
घर आया मेहमान भगवान हो

जब अहंम कहीं टूटने सा लगे
जब मन कहीं फूटने सा लगे

जब सपना भी सृजित होने लगे
मन के भाव प्रफुल्लित होने लगे

तुम अपने आप में खोने लगे
अच्छी नींद जब तुम सोने लगे

जब आँखों से नीर झरने लगे
दर्द किसी का मन भरने लगे

जब दाँत मोती बन टपकने लगे
चेहरे पर खुदाई झलकने लगे

चेहरे मुस्कान जब महकने लगे
मिलने की चाहत सहकने लगे

तब समझना कि तुम इंसान हो।.... कि तुम इंसान हो

Poet; Amrit Pal Singh Gogia 'Pali'

Saturday, April 16, 2016
Topic(s) of this poem: motivational
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