वक़्त का पहरा 14.7.16—7.05AM
वक़्त का पहरा इतना गहरा सा क्यूँ है
आज सब कुछ ठहरा ठहरा सा क्यूँ है
फ़िज़ा आज क्यूँ गुमसुम होने लगी है
रात इतनी गहरी नींद क्यूँ सोने लगी है
उदासी का आलम क्यूँ छाने लगा है
आँखों से नीर भला क्यूँ आने लगा है
बात तेरे व मेरे बीच हुई थी जानम
जिक्र आज बाहर क्यूँ जाने लगा है
ग़मगीन हम पहले भी हुआ करते थे
उदासीन हो चेहरे भी पढ़ा करते थे
दावे तो यूँ पहले भी किया करते थे
अपने होने का दम भी भरा करते थे
रिश्तों की बाजी भी तो लगा देते थे
बात बिगड़ी हो फिर भी मना लेते थे
कभी रोना हँसना और ग़मगीन होना
लड़ना झगड़ना और रातें रंगीन होना
पर आज कदम रुके रुके से क्यूँ हैं
आहट है पर इतने सधे सधे क्यूँ हैं
दिल भी है पर मचलता क्यूँ नहीं है
आया तूफ़ान सम्भलता क्यूँ नहीं है
अपने अंदर जाकर तो देखो जरा
नया दीप जलाकर तो देखो जरा
नयी रौशनी में उजाला ही दिखेगा
टूटा हुआ रिश्ता सुहाना हो मिलेगा
नयी फ़िज़ा होगी नया आसमाँ होगा
दिल की बातें चेहरा खुशनुमा होगा
नयी दिशा होगी नया कारवां होगा
सुन्दर सपने रिश्तों का जहां होगा
Poet: Amrit Pal Singh Gogia 'Pali'
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