A-019. हाथ क्यों छुड़ाते हो Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-019. हाथ क्यों छुड़ाते हो

हाथ क्यों छुड़ाते हो
दूर भी नहीं जाते हो
क्यों अश्क बहाते हो
गले भी लग जाते हो

क्यों मुखड़ा छुपाते हो
करीब भी तो आते हो
इतने वार क्यों करते हो
प्यार भी तो जताते हो

मुझसे कैसा शर्माना
नज़रें भी तो मिलाते हो
नजरें झुका के क्या फायदा
खुद ही समा भी जाते हो

मुझसे क्या छुपाना
खुद ही चले आते हो
हर बात जहन में छिपी
इक इक करके बताते हो















दूर भला जाने से क्या फायदा
सीने से खुद ही तो लग जाते हो
नज़रें घूमाने से भी क्या फायदा
बे रोक टोक देखे चले जाते हो

रौशन करते हो शम्माआ
पास बैठ जाने के लिए
फिर क्यों बुझाते हो
पास बुलाने के लिए

सीने में मेरे क्या ढूँढ़ते हो
क्या कुछ जताने के लिए

इतनी सारी जद्दो जहद क्यों करते हो
बस..! केवल मेरा प्यार पाने के लिए..?

A-019. हाथ क्यों छुड़ाते हो
Friday, February 10, 2017
Topic(s) of this poem: love and friendship
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