अचेतन चेतना Poem by Lalit Kaira

अचेतन चेतना

कौन सी पीड़ा है?
अनजान,
न जाने कब बह निकलती है
आँखो से
अकारण मन करता है कि रोया जाय
फूट फूट कर....
मन में उथल पुथल मचा देने वाला बवंडर
नही पा पाता है ध्वनि का मार्ग
गले में दर्द के साथ
चार बूंदें छलका कर
घुट जाता है सागर
मन के किसी अँधेरे कोने में
शांति शांति शांति
फिर किसी दिन
कोई चित्र
मन में प्रतिबिम्बित होता है
और... फिर हिलोंरे लेने लगता है
वह अथाह सागर पीड़ा का
परंतु
इस बार अधिक विस्तृत
अधिक विकराल
भरा हुआ बवंडरों से
फिर बहने लगती है पावनी
सारा मैल, सारा पश्चाताप
सिसक-सिसक कर
रिस-रिस कर
बह जाता है......
अरे स्वर्णिम पीड़ा!
ओ सोहागी आँसुओं!
निराले स्वार्गिक रुदन!
मुझे कितना सताते होे तुम
हाँ, पर मुझे मैं भी तो बनाते हो तुम।।।।।।

Saturday, November 4, 2017
Topic(s) of this poem: pain
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Lalit Kaira

Lalit Kaira

Binta, India
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