दिल्ली में जा कर मरते है लोग Poem by Dr. Ravipal Bharshankar

दिल्ली में जा कर मरते है लोग

चूल्लभर पाणी भरते है लोग
दिल्ली में जाके मरते है लोग
एक अदना सा ख्वाब देखते
और भला क्या करते है आस

टिचर, साइंटिस्ट राष्ट्रपती बन जाते
राजनिती को सबसे उपर धरतेे है लोग

अपने बाप की जागीर समझकर
सरकारी खेतो में चरते है लोग

पहिचान नहीं सकते आप इन्हे
अनगिनत मुखौटो की परते है लोग

आवा-बावाओं के चक्कर में गीरकर
झरने की तरह झरते है लोग

लगता है की दे रहे है आपको
मगर आपही से सबकुछ हरते है लोग

"भगवान" को मानते है
पर उससे भी कहा डरते है लोग

Tuesday, December 30, 2014
Topic(s) of this poem: meditation
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