और जरासा रह लेता Poem by Dr. Ravipal Bharshankar

और जरासा रह लेता

और जरा सा रह लेता, पानी जैसा बह लेता

खुशबू सी आ जाती थी, कण-कण महका सा होता
और कहानी ये होती, के सारा आंगन लहराता

पल में जो कुछ भी होता है, दिल में जो कुछ भी होता है
वो सब देखता रहता तो, तु भी आलम कहलाता

छोड पुरानी बाते वो सब, और जला दे राते वो अब
अपने देखे दिखता है तो, जो भी गलत है गल जाता

(डॉ. रविपाल भारशंकर)

Tuesday, December 30, 2014
Topic(s) of this poem: love
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