उठा घूँघट जरा ज़ालिम Poem by Upenddra Singgh

उठा घूँघट जरा ज़ालिम

तेरी आँखों में डूबा जो समंदर वो देख लेने दे.
देखने की हसरत है हंसीं मंज़र वो देख लेने दे.


बहुत दूर से आया हूँ मैं दीदारे-ज़ुस्तजू लेकर.
घायल है ज़माना जिससे खंज़र वो देख लेने दे.


दिल तड़पते हैं जिसकी एक झलक पाने को.
हंसीं हुस्न का मुझको सितमगर वो देख लेने दे.


चाँद गायब है आसमां से घटायें भी नहीं दिखतीं.
उठा घूँघट जरा ज़ालिम ठहर वो देख लेने दे.


खो गईं रानाइयों में जिसकी हूर की वो परियाँ.
हुस्ने-नूर ‘सुमन' मुझको जी भर वो देख लेने दो.

COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Upenddra Singgh

Upenddra Singgh

Azamgarh
Close
Error Success