अबे जा Poem by Upenddra Singgh

अबे जा

बड़ा आया अक्ल का दुश्मन उल्लू का पट्ठा अबे जा.
ज़ाहिल कहीं का हर बात पर हँसी-ठट्ठा अबे जा.


दो-चार बीघे गाँव में क्या मिज़ाज आसमान पर.
है शहर के दरमियां क्या एक-दो कट्ठा अबे जा.


लाइसेंसी राइफल ले बन ना अफलातून अहमक.
चल फटाफट फूट ले या निकालूँ कट्टा अबे जा.


खा गया चारे वो उनके और अपनी आदमियत भी.
बेहया अब मांगता है दूध दही मट्ठा अबे जा.


देखो न लाँघे देहरी वो घर में सयानी बेटियाँ हैं.
ग़र हिमाकत कर रहा खींच दो दो-चार फट्ठा अबे जा.


चाँद पर तोहमत लगाता और कहता दाग उसमें.
कर दी उसने ना तो अँगूर है खट्टा अबे जा.


चापलूसी का चलन कुछ इस कदर अब बढ़ गया है.
वफ़ादारी फिर रही डाले गले में पट्टा अबे जा.


फ़ैशन का ये तूफान ले उड़ा तहज़ीब अपनी.
खोजे नहीं है मिलता बाज़ार मे दुपट्टा अबे जा.


किवियों से पीट गए हम ‘सुमन' क्रिकेट में.
भाड़ में अब तूँ गया और तेरा सट्टा अबे जा.

Friday, July 19, 2019
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Azamgarh
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