कैसा होता है पतझड़
मैंने नही देखा
कैसा होता है सावन
मैंने नहीं देखा
मैंने देखी थी कई
बेहिसाब काली रातें
जिनमें सावन भादो
सब बराबर लगते हैं
कैसा होता है कोयल का स्वर
कैसा लगता है
झिंगूर का स्वर
मैंने नही सुना
मैंने सुने हैं कई कोलाहल
जो जिंदगियों की टीस से उभरते हैं
सब बराबर ही लगते हैं
विचारों के प्रबल बवंडर को
उगते और दफ़न होते देखा है
आचार व्यवहारों को
समय के अनुरूप बदलते देखा है
कैसी होती हैं रंगों की झालरे
मैं नही जानती
कैसी होती है
सुबह की बानगी
मैं नही जानती
मैंने तो उस अलसाये आसमान को
टुकड़ों में टूटते देखा है
सब बराबर सा ही लगता है
सब कुछ हवा में बहकर
मन पर जमता सा प्रतीत होता है
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