विचारों के बवंडर Poem by Kezia Kezia

विचारों के बवंडर

कैसा होता है पतझड़
मैंने नही देखा
कैसा होता है सावन
मैंने नहीं देखा
मैंने देखी थी कई
बेहिसाब काली रातें
जिनमें सावन भादो
सब बराबर लगते हैं
कैसा होता है कोयल का स्वर
कैसा लगता है
झिंगूर का स्वर
मैंने नही सुना
मैंने सुने हैं कई कोलाहल
जो जिंदगियों की टीस से उभरते हैं
सब बराबर ही लगते हैं
विचारों के प्रबल बवंडर को
उगते और दफ़न होते देखा है
आचार व्यवहारों को
समय के अनुरूप बदलते देखा है
कैसी होती हैं रंगों की झालरे
मैं नही जानती
कैसी होती है
सुबह की बानगी
मैं नही जानती
मैंने तो उस अलसाये आसमान को
टुकड़ों में टूटते देखा है
सब बराबर सा ही लगता है
सब कुछ हवा में बहकर
मन पर जमता सा प्रतीत होता है
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