आदमी की परिभाषा Poem by Upenddra Singgh

आदमी की परिभाषा

एक दो कौड़ी का गधा
अपनी बिरादरी के एक गधे को बुरी तरह फटकारते हुए बोला -
क्यों बे आदमी कहीँ का!
तुझे अब तक नहीं आया देश के लिये जीने का सलीका।
तूं भी देशद्रोहियों की मानिन्द चालबाज चीन से सामान खरीद उसे मजबूत बना रहा है।
तेरा ये आदमीपन
न केवल बिरादरी को बदनाम कर रहा है अपितु हमारी अर्थव्यवस्था का काम भी तमाम कर रहा है।
खबरदार! जो वतन से फिर की गद्दारी।
ऐसी घिनौनी परम्परा नहीं है हमारी।
गधे की बात सुन मैं मानो जमीन में गड़ गया।
मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया।
ऐसे में मेरे भीतर के आदमी ने मुझसे पूछा -
तुम्हें क्या हो गया है?
तुम्हारे आदमी होने का अर्थ कहाँ खो गया है?
"तुम कौन थे क्या हो गए..........।
कुत्ते-बिल्ली तक तुमसे खफा हैं।
गधों के गधे भी कह रहें हैं कि-
आदमी तो बेवफ़ा है।
वह अपनों का होकर भी अपनों का नहीं है।
क्या आदमी की यही परिभाषा सही है?

Sunday, September 30, 2018
Topic(s) of this poem: made in china
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Azamgarh
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