क्षण भर के परिचय की पीड़ा
जग भर का बोझ थमा बैठी
तुम चले काल के कांधों पर
रह गयी बात मन मे बैठी
मेरे कवि अनजान तुम्हारे
रस्तों पर जो पीड़ा थी
तुम शब्दों के हार बना
सज लेते, ये तो क्रीड़ा थी
इतने निष्ठुर हो कर क्यों
भव-फंद से हुए पराजित तुम
कैसे खुद से हार गए
वरदानी हे! अपराजित तुम
देखो कैसे बिना तुम्हारे
कविता का श्रृंगार लुटा है
अंधियारे इस कोप भवन में
मेरा कवि रूठा है, डटा है
कौन थे तुम कब सोचा मैनें
कब मैनें कुछ शब्द कहे
तुम शब्दों के व्यापारी थे
फिर भी हम निःशब्द रहे
झरे पात पतझर में लेकिन
फिर वसंत को आना है
नया रूप ले कोमल कलियों
ने फिर से खिल जाना है
किन्तु नए युग में मेरे कवि
तुम जीवन भर गाओगे
इसी अधूरे पथ पर चल कर
इसको पूर्ण बनाओगे
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