पर्ची कहने सुनने की Poem by Sharad Bhatia

पर्ची कहने सुनने की

Rating: 5.0

पर्ची कहने सुनने की

वो कहता था,
मैं सुनती थी,
जारी था एक खेल
कहने-सुनने का।

खेल में थी दो पर्चियाँ।
एक में लिखा था *‘कहो'*,
एक में लिखा था *‘सुनो'*।

अब यह नियति थी
या महज़ संयोग?
उसके हाथ लगती रही वही पर्ची
जिस पर लिखा था *‘सुनो'*।

वह सुनती रही।
उसने सुने आदेश।
उसने सुने उपदेश।
बन्दिशें उसके लिए थीं।
उसके लिए थीं वर्जनाएँ।

वह जानती थी,
'कहना-सुनना'
नहीं हैं केवल क्रियाएं।

राजा ने कहा, 'ज़हर पियो'
*वह मीरा हो गई।*

ऋषि ने कहा, 'पत्थर बनो'
*वह अहिल्या हो गई।*

प्रभु ने कहा, 'निकल जाओ'
*वह सीता हो गई।*

चिता से निकली चीख,
किन्हीं कानों ने नहीं सुनी।
*वह सती हो गई।*

तीन बार तलाक कहा तो परित्यक्ता हो गयी

घुटती रही उसकी फरियाद,
अटके रहे शब्द,
सिले रहे होंठ,
रुन्धा रहा गला।

उसके हाथ *कभी नहीं लगी वह पर्ची, *
जिस पर लिखा था, *‘कहो'*।

*अमृता प्रीतम* की एक कविता

Wish you all a very Happy Women's Day

Dedicated to all ladies.......🙏

POET'S NOTES ABOUT THE POEM
Wish you all a very Happy Women's Day Dedicated to all beautiful women in this beautiful world.......🙏
COMMENTS OF THE POEM
Aarzoo Mehek 15 December 2021

Khoobsurat ehsaas

0 0 Reply
Varsha M 11 April 2021

Bahut khoob rachna Aamrit preet ji ki. Har bar wo chahi ki kah doon par chup rahi bas ye sooch kar ki sabki khushi me mari khisi. Kisi ne na chaha janane ke ki wo kya chahati...bas farman zaari kar de.. bahut khoob rachana.

0 0 Reply
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