आशिक तो काफिर होता है Poem by Lalit Kaira

आशिक तो काफिर होता है

छोटी सी नादानी थी
प्यारी एक कहानी थी
जालिम बड़ा जमाना था
बस गर्दन कट जानी थी

प्रेम प्रेम का उत्तर है
उसने ये ही सीखा था
वो तो जोगी तेरा था
धूनी वहीं रमानी थी

सारे जहां की चालाकी
उसकी पीठ के पीछे थी
वो कैसा अनजाना था
तू कैसी दीवानी थी

लिये मिलन की आशाएं
आँखें सपने बुनती थीं
नहीं किसी का कोई डर था
बड़ी हसीन जवानी थी

फूल प्यार के बरसा कर
चले मिटाने नफरत को
नफरत भी क्या कुछ कम थी
वो कैसे मिट जानी थी

वो मय का महमूद भले हो
या कोई रुखसाना हो
आशिक तो काफिर होता है
उसकी जान तो जानी थी

मुझे मिली कल पगली सी
सूखी आंखों में प्यार लिए
जिसके अपने अपनो ने
दे दी उसकी कुरबानी थी

आँचल में केसरिया बालम
सूखा हुआ था उस दिन से
जिस दिन मिलन की बेला में
खून सनी मरजानी थी

उसकी आंखें कहती हैं
कि प्रेम अभी भी जिंदा है
जिसको मारा जिस्म था वो
उसकी सांस तो फानी थी

जिस्मों को मारोगे तुम
उससे कैसे निपटोगे
जिसने प्यार बनाया है
तुमने उससे ठानी थी

Wednesday, August 22, 2018
Topic(s) of this poem: beauty,deaths,hatred,love and life
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Lalit Kaira

Lalit Kaira

Binta, India
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