अग्निशिखा Poem by Lalit Kaira

अग्निशिखा

क्रूर बाला!
निठुर देवि!
स्वामिनी!
प्रेयसी!

अग्निशिखा..

तू सृजन की संगिनी है
मार्ग है संहार है
भग्न अवशेषों के सिर पर
चरण तू महाकाल का

अग्निशिखा तू ही प्रेयसी मेरी।।

अनगिनत सहस्त्राब्दियां
मौन हैं
घृणा है या प्रेम है तू कौन है?
तू जिलाती है सुलाने के लिए
प्रेम करती है मिटाने के लिए
भय!
किसको साहस पूछ ले
तेरा मार्ग क्या..
नत नयन रहते हैं सारे
सर झुका

अग्निशिखा! ! तू ही प्रेयसी मेरी

क्रोध हो या स्नेह हो
प्रथम ही अंतिम बने
मैं समा जाऊं पिघल कर
ऐसे गलबहियां सजा
सिर झुका है तन की वीणा
गीत तेरा गा रही है
तुझमें जीवन ढूँढने को
लौ झिलमिला रही है

अग्निशिखा, तू ही प्रेयसी मेरी
स्वामिनी! अब बाँध दे तू मुक्ति से....

KL

Saturday, May 9, 2020
Topic(s) of this poem: poem
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Lalit Kaira

Lalit Kaira

Binta, India
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