तुम रूठे हो जाने कब से Poem by Lalit Kaira

तुम रूठे हो जाने कब से

जीवन में मधुमास नहीं है
व्यग्र कोई उच्छ्वास नहीं है
वर्षा की भी आस नहीं है
सूखी है नदिया बरसों से
तुम रूठे हो जाने कब से

प्यासे हैं अधरों के प्याले
चुम्बनहीन कपोल बिचारे
मादिरारुण आँखों के धारे
तुम्हें पुकारें छलक छलक के
तुम रूठे हो जाने कब से

सावन बरस रहा है निशिदिन
गूंजी रातें, चहक उठे दिन
मैल धुल गया, निखर गए मन
दिल फिर भी ना बहले इनसे
तुम रूठे हो जाने कब से

Monday, December 25, 2017
Topic(s) of this poem: love and life,wait
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Lalit Kaira

Lalit Kaira

Binta, India
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