'गुस्ताख़ी' Poem by Ravi The Love Poet

'गुस्ताख़ी'

नज़रों ने शह दिया तो गुस्ताख़ी की
मयखाने ने खुद हमको दावत दी
आवारा नहीं कि हर पैमाने पे बहक जाएँ
उनके लबों ने इजाजत दी, तो हमने पी |

आरज़ू-ए-इश्क थी तो सही पर
हर रोशनी से मुहब्बत नहीं की
शमा ने खुद पुकारा जब मचल के
तब परवाने ने ख़ुदकुशी की |


फूल तो बहुत थे बाहर-ए-बाग़ में
खिले भी थे अपने पूरे शबाब में
वो भौरे नहीं कि हर महक पे बहक जाएँ
कली वही चुनी जिसने हमसे शरारत की |

शहर में हुश्न की बहार थी
मिलने को इश्क से बेकरार थी
हर बेकरार से करार कर बैठें
हम वो नहीं कि किसी से प्यार कर बैठें |

वैसे तो फ़ितरत से हैं हम शरीफ़
नीयत भी हमारी रही है ठीक
बेईमान तो हम तब हुए रवि
जब उसने हमारे लिए ज़माने से बगावत की |

Monday, October 16, 2017
Topic(s) of this poem: love
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Ravi The Love Poet

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Kaushambi
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