नज़रों ने शह दिया तो गुस्ताख़ी की
मयखाने ने खुद हमको दावत दी
आवारा नहीं कि हर पैमाने पे बहक जाएँ
उनके लबों ने इजाजत दी, तो हमने पी |
आरज़ू-ए-इश्क थी तो सही पर
हर रोशनी से मुहब्बत नहीं की
शमा ने खुद पुकारा जब मचल के
तब परवाने ने ख़ुदकुशी की |
फूल तो बहुत थे बाहर-ए-बाग़ में
खिले भी थे अपने पूरे शबाब में
वो भौरे नहीं कि हर महक पे बहक जाएँ
कली वही चुनी जिसने हमसे शरारत की |
शहर में हुश्न की बहार थी
मिलने को इश्क से बेकरार थी
हर बेकरार से करार कर बैठें
हम वो नहीं कि किसी से प्यार कर बैठें |
वैसे तो फ़ितरत से हैं हम शरीफ़
नीयत भी हमारी रही है ठीक
बेईमान तो हम तब हुए रवि
जब उसने हमारे लिए ज़माने से बगावत की |
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