किस ओर ये लोग बढ़ रहे। Poem by Prabhakr Anil

किस ओर ये लोग बढ़ रहे।

किस ओर ये लोग बढ़ रहे
हर मर्यादा को तोड़कर।

जिसकी सभ्यता, संस्कृति से
पूरे विश्व में पहचान है।
जिसकी आज भी पूरे विश्व में
अखण्डता की मान है।
उस सभ्यता उस संस्कृति और
अखण्डता को छोड़ कर,
किस ओर ये लोग बढ़ रहे
हर मर्यादा को तोड़ कर।

जो लक्ष्मी रूप में सदियों से
हर घर घर मे है पल रही,
आज मति भ्रस्ट, लालची, पापियों के
हाथ से है जल रही।
क्यो पी रहे हर पल यहां
सब लाज शर्म को घोल कर,
किस ओर ये लोग बढ़ रहे
हर मर्यादा को तोड़ कर।
किस ओर ये लोग बढ़ रहे
हर मर्यादा को तोड़ कर।

Thursday, September 21, 2017
Topic(s) of this poem: feelings
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Prabhakr Anil

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Kotwan, . Barhaj deoria up
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