केतली छींका और वो Poem by Rahul Awasthi

केतली छींका और वो

केतली छींका और वो

चाय से लबालब भरी हुई केतली
केतली के मुहाने पर धसा हुआ सा कागज़ का टुकड़ा
और वो छींका
जिसके खाँचो में धसे हुए से हैं
काँच के गिलांस कतारो में
जो खनकते हैं हर एक कदम के साथ
और वो दो नन्हे मासूम हाथ
जो थामे हुए हैं
केतली और छींके का भार
बोहोत जिम्मेदारी के साथ

वो दो नन्हे हाथ
जो छोटी सी उम्र में
भार उठाने में बोहोत उस्ताद जान पड़ते हैं
मग़र वे उठाते ही नही दबाते भी हैं अपने भीतर बोहोत कुछ
जी हाँ
वे दबाते है
अपनी सभी इच्छाओं आवश्यकताओं और अधिकारो
का गला
और उठाते हैं एक अनचाहा बोझ

बोझ उस चाय से लबालब भरी हुई गर्म खोलती केतली का
और तार से बने हाथ में चुभते उस छीकें का
केतली और छीकें को थामे उन हाथो को देखकर आप सूँघ पाएंगे जलते बचपन और सपनो की बू को
और वो केतली और छींका ही काफी हद तक
समझा सकते है आपको
उस नन्हे लड़के की स्थिति और मनोदशा

केतली में लबालब भरी हुई चाय
काफी हद तक दिखती है
उस लड़के भीतर भरी हुई
जिज्ञासाओं और जरुरतो को आशाओ और उम्मीदों को
जो चाय के झूठे गिलासों और गन्दी प्लेटो के बीच
कही गुम होती जा रही है
ठीक वैसे ही जैसे उसके हाथ की
अधबनी रेखाएं
गुम होने लगी हैं बर्तन मांझते मांझते
और वो छींके के खाँचो में धसी हुयी सी
काँच के गिलासों की कतारे
दिखाती हैं
उसके घोर अन्धकार में धँसते बचपन को
जो हर पल हर कदम
खनकता है मचलता है...
और निकलना चाहता है बाहर
इस केतली और छींके की दुनिया से
मगर
वो असहाय है
असमर्थ है
इस जकड़ से निकल पाने में
मग़र आशाए जीवंत है उसकी
की शायद
कि शायद
किसी रोज कोई हाथ बढेगा
और बाहर निकालेगा
छींके में फंसे उन गिलासों की कतार में से
किसी गिलास को
और बच पायेगा बचपन की दुनिया
वास्तविक सौंदर्य

Tuesday, May 16, 2017
Topic(s) of this poem: child,child abuse
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
आप भारत के किसी भी कोने में जाइए आपको मिल जाएंगी चाय की दुकाने और उन दुकानों पर मिल जाएंगे नन्हे नन्हे बच्चे चाय के झुटे गिलास मंझते हुए
इसी विषय पर आधारित है मेरी कविता

केतली छेंका और वो
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 16 May 2017

इस कविता में संवेदनशील कवि ने बाल श्रमिकों की समस्या और बाल अधिकारों के हनन का मामला उठाया है. यह सराहनीय है. बहुत बहुत धन्यवाद, मित्र राहुल अवस्थी जी.

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