केतली छींका और वो
चाय से लबालब भरी हुई केतली
केतली के मुहाने पर धसा हुआ सा कागज़ का टुकड़ा
और वो छींका
जिसके खाँचो में धसे हुए से हैं
काँच के गिलांस कतारो में
जो खनकते हैं हर एक कदम के साथ
और वो दो नन्हे मासूम हाथ
जो थामे हुए हैं
केतली और छींके का भार
बोहोत जिम्मेदारी के साथ
वो दो नन्हे हाथ
जो छोटी सी उम्र में
भार उठाने में बोहोत उस्ताद जान पड़ते हैं
मग़र वे उठाते ही नही दबाते भी हैं अपने भीतर बोहोत कुछ
जी हाँ
वे दबाते है
अपनी सभी इच्छाओं आवश्यकताओं और अधिकारो
का गला
और उठाते हैं एक अनचाहा बोझ
बोझ उस चाय से लबालब भरी हुई गर्म खोलती केतली का
और तार से बने हाथ में चुभते उस छीकें का
केतली और छीकें को थामे उन हाथो को देखकर आप सूँघ पाएंगे जलते बचपन और सपनो की बू को
और वो केतली और छींका ही काफी हद तक
समझा सकते है आपको
उस नन्हे लड़के की स्थिति और मनोदशा
केतली में लबालब भरी हुई चाय
काफी हद तक दिखती है
उस लड़के भीतर भरी हुई
जिज्ञासाओं और जरुरतो को आशाओ और उम्मीदों को
जो चाय के झूठे गिलासों और गन्दी प्लेटो के बीच
कही गुम होती जा रही है
ठीक वैसे ही जैसे उसके हाथ की
अधबनी रेखाएं
गुम होने लगी हैं बर्तन मांझते मांझते
और वो छींके के खाँचो में धसी हुयी सी
काँच के गिलासों की कतारे
दिखाती हैं
उसके घोर अन्धकार में धँसते बचपन को
जो हर पल हर कदम
खनकता है मचलता है...
और निकलना चाहता है बाहर
इस केतली और छींके की दुनिया से
मगर
वो असहाय है
असमर्थ है
इस जकड़ से निकल पाने में
मग़र आशाए जीवंत है उसकी
की शायद
कि शायद
किसी रोज कोई हाथ बढेगा
और बाहर निकालेगा
छींके में फंसे उन गिलासों की कतार में से
किसी गिलास को
और बच पायेगा बचपन की दुनिया
वास्तविक सौंदर्य
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इस कविता में संवेदनशील कवि ने बाल श्रमिकों की समस्या और बाल अधिकारों के हनन का मामला उठाया है. यह सराहनीय है. बहुत बहुत धन्यवाद, मित्र राहुल अवस्थी जी.