वो उतरा जो चेहरा फिर देखा ना गया Poem by Talab ...

वो उतरा जो चेहरा फिर देखा ना गया

वो उतरा जो चेहरा फिर देखा ना गया
वो ज़ख्म जो था गहरा फिर देखा न गया

ये ज़िद थी कि मुड़ के ना देखेंगे उसे
वो दुपट्टा जो लहरा फिर देखा ना गया

शजर भी रोए पत्ते लुट गई महक ए गुल
लाई सबाह जो सेहरा फिर देखा ना गया

सच्चाई का सामना कर ही लेते हम
वो ख्वाब जो ठहरा फिर देखा ना गया

गालों पर इस कदर दीवार सा वो तिल
वाह हुस्न पर वो पहरा फिर देखा न गया

दुनिया ने जला डाला नशेमन हमारा
कल अपना वो सुनहरा फिर देखा न गया

टूट टूट कर चूर हुआ हर आईना तलब
चेहरा उनसे वो मेरा फिर देखा ना गया

शजर = Trees
सबाह = Morning breeze
सेहरा = Desert

Thursday, April 6, 2017
Topic(s) of this poem: love and life
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