घर से कल शब् निकले तो थे मैखाने को Poem by Talab ...

घर से कल शब् निकले तो थे मैखाने को

घर से कल शब् निकले तो थे मैखाने को
राह टकराए शेखजी लगे समझने को

पाएं हैं रिंदों से हम ने ये मशवरे
गिना नहीं करते कभी यहां पैमाने को

कब तक रोकोगे होगा क्या तुम्हे हासिल
आएं हैं यहां हम भी तो कभी जाने को

और फिर खड़े हैं सर झुकाए दर पर उसके
फिर मिला उन्हें मौका हमे सताने को

ना उठा वाईज मैकदे से सहर हुए तक
बेशुमार छुपा रखे थे राज़ बताने को

अश्क ना रहे आँखों में मगर आज भी
रगों में पाक लहू बहुत है बहाने को

जर्रा हूँ ख़ाक ए कू ए यार में निहान
ढूंढे है फिर वो क्यों मुझे मिटाने को

तेरे वादे पर और क्या जिए ये तलब
आया है कभी तुमको प्यार जताने को

शेखजी = venerable person
पैमाना = cup
कू ए यार = Street of the beloved
निहान= Hidden

Thursday, April 6, 2017
Topic(s) of this poem: love and life
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