रूठने में क्या रखा है मान भी जाओ Poem by Talab ...

रूठने में क्या रखा है मान भी जाओ

रूठने में क्या रखा है मान भी जाओ
ये मासूमियत ए मोहब्बत जान भी जाओ

देखना छोड़ेगी नहीं दामन तुम्हारा
हमारी याद से दूर जहाँ भी जाओ

शुक्रन ए जान तै जो किये इतने मकाम
ज़ुल्फ़ें झटक कर बोले जो कहाँ भी जाओ

मेरी बेनक़ाबि का कुछ तो रखो भरम
खुदा के वास्ते मुझे पहचान भी जाओ

एक तेरा वादा जो लिए जीते थे हम
रहा कहाँ अब तेरा जब ईमान भी जाओ

तोड़ डालो बंधन जो रोकें हैं तुमको
कहीं मुन्तज़िर है लो आसमान भी जाओ

साया है मेरा रोकें उसे कैसे तलब
रही जब ना रौशनी ना जान भी जाओ

मुन्तज़िर = wait impatiently

Thursday, April 6, 2017
Topic(s) of this poem: love and life
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