हाए उन होटों की मुस्कान कुछ और है Poem by Talab ...

हाए उन होटों की मुस्कान कुछ और है

हाए उन होटों की मुस्कान कुछ और है
अगरचे आखों की दास्ताँ कुछ और है

दौर ए बहार से गुज़र चूका हूँ मैं
अब मेरे सामने बयाबान कुछ और है

किन उम्मीदों से बनाया उसको तूने
देख ज़मीं पर तेरा इंसान कुछ और है

माना रस्म ए शहर रुस्वाई ए आशिक़ सही
पर तेरा यूं रुलाना मेरी जान कुछ और है

मिलें ना कभी और रहें भी खुश मिज़ाज
अभी मेरे दिलचस्प इम्तिहान कुछ और हैं

ज़िक्र ए खुल्द यूं आदम से सुना था मगर
वो जहाँ मिले ये गुलसितां कुछ और है

छोड़ चला हूँ दुनिया संभाले रखना
तेरे बिन जैसे लगती दुनिया कुछ और है

आ ही गए आखिर वही बातों में तलब
कहते ना थे उनकी ज़बान कुछ और है


अगरचे = Although
बयाबान = wilderness

Thursday, April 6, 2017
Topic(s) of this poem: love and life
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