जाने कहाँ गए वो दिन| वो दिन जहां मेरे बच्चों कि किलकारियां सारा दिन उधम मचाती थी; जहां मेरे पिता, मेरी हर ख्वाइश पूरी किया करते थे; बाज़ार के सारे खिलोने मेरे थे; मेरी माँ के हाथों कि मिठाइयाँ और नमकीन मेरे जीवन में आनंद लाती थीं; जहाँ मैं अपनी प्रियसी कि बाहों में लिपटा रहता था|
ऐसा क्या हो गया आज? दिन बदले और फिर बीते साल; मुझे लगा कि सारी ज़िन्दगी ऐसे ही चलती रहेगी| व्यापार का ऐसा चस्का लगा कि मैं अपने परिवार को धुप में ही छोड़कर चला गया| जाता भी क्यूँ ना| पिताजी का ताना, "घर पर मुफ्त कि रोटी तोड़ने वाला"; वो भी मेरी धर्म-पत्नी के सम्मुख ने मेरे दिन-रात कि नींद उदा दी| घर में किसी चीज़ कि कमी ना थी - कोई आभाव नहीं था; सारे सुख थे| फिर भी पिताजी ने मेरी बेइज्जती करी| ऐसा किया ही क्या है मैंने? या फिर यूँ कहें कि मैंने कुछ नही किया| नहीं-नहीं, कुछ तो करना होगा| ऐसा नही हो सकता| मेरे मन-मस्तिष्क में अंतर-द्वन्द चला जा रहा था| ऐसे कटु वाक्य और कटु-प्रश्न मैंने कभी सुने नहीं थे| क्या करूं मैं? पढ़ा लिखा तो बहुत हूँ लेकिन व्यापार का कोई ज्ञान नहीं है| और अगर मैं चला गया, तो मेरे परिवार का ध्यान कौन रखेगा|
पूर्व चलने के बटोही, बाट कि पहचान कर ले|
यहाँ पर मुझे बाट कि कोई जानकारी नहीं थी| फिर भी हौसला करके मैं आगे बढ़ गया| मैंने पिताजी का आशीर्वाद लिया और घर से निकल गया| हिम्मत-ए-मर्दा, मदद-ए-खुदा|
चल पड़े जिधर दो डग, मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर|
मन में दृढ निश्चय, दृढ संकल्प के साथ, मैं पंहुचा दुसरे देश और खोली एक दुकान| वाह रे, ऊपरवाले; गुपचुप तमाशा देखे - वाह रे, तेरी खुदाई| हा- हा| हंसो, सब हंसो| लगाओ ठहाके| आज तुम्हारा दिन है, और मेरी अंधेरी रात|
धीरे-धीरे व्यापार में लाभ होने लग गया| मेरी छोटी सी दूकान से 1 वर्ष में इतना तो लाभ हो ही गया, कि मैं अपने परिवार के सामने आँखे-में-आँखें डालकर बात कर सकता हूँ| मेरी मेहनत का धन है, (अब कोई रोटी मुफ्त कि नहीं है) | मेरा अपने-आप से किया गया वादा कि जब मैं अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊँगा, तभी घर वापसी करूँगा, सफल होने लग गया था| मोबाइल फोन का ज़माना भले ही आ गया हो परन्तु घर के रिश्ते मिलकर ही पूरे होते हैं| मेरे जीवन कि 1 वर्ष कि तपस्या अब पूर्ण हो चुकी है| 
7 दिन बाद घर वापसी कि ट्रेन है|
लेकिन ये क्या? देश में कोरोना कि वजह से लॉक-डाउन|
विरह कि इस बेला का अब क्या अंत नहीं होगा? ये कब तक चलेगा? दुकाने भी बंद है| मेरे पास जमा-पूँजी ज़रूर है, पर 2 महीनो के लिए ही पर्याप्त होगी|
एक-एक दिन एक-एक वर्ष के समान जान पड़ता था| शुरुवात मे जो लोक-डाउन दो हफ्ते का था; देखते-ही-देखते दो महीने का हो गया| मेरी सारी जमा-पूँजी भी व्यय हो गयी| अपने परिजनों से बात करता हूँ, तो रोता हूँ| क्या इस जीवन में अब सुबह नहीं होगी| इस रात का कोई अंत नहीं होगा|
दुनिया रखती है याद उसे, जो जीतता है; 
भूल जाते हैं लोग, सितारा भी कभी टूटता है|
किधर जाऊं अब मैं? जिन्हें नाज़ था मुझपर, अब मैं उनसे कैसे सामना करूं? 
अंदाज़ अपना देखते हैं आइना में हम; 
और ये भी देखते हैं कि कोई देखता न हो|
दिनभर खुली अंकों से रोता हूँ मैं| भगवान भी मूक-दर्शक बनकर मुझे देख रहा होगा|
आसमा पे हैं खुदा, और जमीन पे हम, 
जाने क्यूँ वो इस तरफ देखता है कम|
सोचा नही था कि तकदीर यहाँ ले आएगी| सीने में बस गम-ही-गम है| जो भी सपने देखे थे, वो सपने ही रह गये| लोग कहते हैं मेहनत करने से भगवान् भी मिल जाते हैं, फिर मेरी तपस्या में कहाँ कमी रह गयी| लगता है कि अब मैकदा ही मेरी तृष्णा बुझा सकता है| किसी ने सच ही कहा है: 
जाहिद, शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर
या वो जगह बता जहां पर खुदा नहीं|
हमने तो जब कलियाँ मांगी, तो कांटो का हार मिला| यही सोच कर जब मैंने मैखाने में जाने के लिए कदम बढाया, तो मेरा परिवार मेरे सामने आ गया| मेरे पिताजी ने मुझे गले लगाया और कहा कि तपस्या का फल मिलना जरूरी नहीं; जरूरी ये है कि क्या हमने तपस्या करी| अपने पुत्र को स्वाव-लम्बी बनना ही उनका मकसद था, जो पूरा हो गया|
जीवन जीने कि कला, जीवन जी कर ही आती है| इसकी कोई अलग जमात नही लगती; इसका कोई गुरु नहीं होता| जीवन के आयाम जीवन ही बताता है| 
गिर कर उठाना ही जीवन है|
जब हम बालक थे, तो हमें चलना सीखने में एक साल लगा| बोलने में कई वर्षा लगे| एक नवजात शिशु रो-रोकर अपनी बात अपनी माँ को कहता है, फिर टूटा-फूटा बोल कर कहता है, और फिर 3-4 वर्ष बाद वो अपनी बात ढंग से कह पाटा है; लेकिन वो बोलने कि कोशिश नही छोड़ता| वो तब तक कोशिश करता जब तक वो अपनी बात सामने वाले को कह नहीं देता|
हमें जीवन जीने कि प्रेरणा किसी और से नहीं, अपने आप से ही लेनी चाहिए|
पृथ्वी पर दिन-रात रोजाना होते हैं; परन्तु, जीवन में हर समय सुबह ही रहती है - और जब आपको लगे कि अब अँधेरा हो रहा है, तो आशा कि एक ज्योत जलाइए|
अँधेरी है रात मगर, दिया जलना कब मन है|                
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बहुत सुंदर. आपने उक्त आलेख या कहानी में अनेक विधाओं का समावेश किया गया है जिससे इसकी रोचकता कई गुना बढ़ गई है. पाठक को इससे प्रेरणा भी मिलती है. धन्यवाद, मित्र आलोक जी..