रातो का अंधियारापन Poem by Rahul Awasthi

रातो का अंधियारापन

जब रातो का अँधियारापन दिन में घुलने लग जाता है।
जब जीवन का पल पल भारी हो शूलों सा चुभने लग जाता है
जब दुनिया का ये खेल तमासा बेमानी हो जाता है
तब दुनिया भर के लिए हम थोड़े अभिमानी हो जाते है।
सच कहते हैं फिर भी थोड़े से बेमानी हो जाते हैं।
जब चिंताओं की रेखाएं माथे पर दिखने लगती हैं
जब दुविधाओं के बादल में सब आशाएं छुपने लगती हैं
जब खुदके सपने भी हमको कुछ बोझ दिखाई देते हैं
खुदके निर्मित रस्ते भी जब गलत दिखाई देते हैं
जब दुनियाभर की नजरो में एक बच्चा मरने लगता है
जब दुनियाभर के बोझों से खुदका ही कन्धा जलने लगता है।
खेल खिलोनो की दुनिया जब विस्तृत लगने लगती है
अब आगे जाने क्या होगा हर धड़कन डरने लगती है
लेटे लेटे घरवालो की जब यादें दौड़ी आती है
उनके प्रति कर्तव्यों की चिंताए अकुलाती हैं
तब मन अपना भी घर की दहलिजो के अंदर रहना चाहता है
तब मन अपना भी घर की देहलिजो के अंदर रहना चाहता है
माँ की गोदी में एक नन्हा सा बालक सोना चाहता है
एक छोटा लड़का पापा के सीने लगना चाहता है
जब रातो का अंधियारपन दिन में घुलने लग जाता है
जीवन का पल पल भरी हो शूलों सा चुभने लग जाता है।

Sunday, February 5, 2017
Topic(s) of this poem: conflict,life
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
जिंदगी में कई बदलाव आते है समय के साथ, एक समय आता है जब हम बड़े होने लगते है...मगर मन कभी नही करता की ये बचपन खत्म हो....तो जो इस समय की देहलीज पर द्वन्द होते है..वो इस कविता में आपको दिखेंगे।
COMMENTS OF THE POEM
Abhilasha Bhatt 16 February 2017

A tremendous work of yours.....loved it :)

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