काश गर्भाशय मे ही बोलने की आज़ादी होती, तब बेटी ज़ोर-ज़ोर से ये कहती की उसे जीना है| उसके माँ-बाप शायद तब भी उसे अनदेखा कर देते| हमारे देश की ये विडम्बना है की जिस देश मे नारी की शक्ति रूप मे उपासना की जाती है, आज उसी देश मे नारी को विलुप्ति की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया गया है|
इतिहास पर अगर एक नज़र दौड़ाएँ तो ये नज़र आता है की शुरुवात से ही हालत ऐसे नहीं थे| मानव सभ्यता के आरंभ मे एक महिला का दर्जा पुरुष के मुक़ाबले ऊंचा था| मानव उपासना भी स्त्री की करता था| समय के साथ भगवान का पुरुष-करण किया गया और पित्र-सत्ता को बढ़ावा दिया गया| यही वाकया हर धर्मा, हर समाज मे हुआ| स्त्री का दर्जा धीरे-धीरे कम होने लगा और 18वीं सदी तक ये सबसे निचले स्तर पर जा चुका था| मानव ने अपने आप को रूढ़िवादी घिसी-पिटी जंजीरों में बांध लिया, जहां तर्क करने की इच्छा को खतम कर दिया गया| भारतिये समाज मे धर्म गोस्ठी का बहुत महत्व था| यह एक चर्चा करने का विशिष्ट आयोजन था| पूरे देश के हर कोने-कोने से हर क्षेत्र के जानकार इसमे सम्मिलित होते थे और हर एक विषय, चाहे वो कितना भी संवेदनशील हो, उस पर चर्चा करते थे| यह एक आगे बढ्ने वाले समाज का सूचक है| धीरे-धीरे इन आयोजन की कमी हो गयी, और हमारी विचारधारा संकीर्ण होती गयी| नियम हमारे समाज को दिशा देते है, जिसका हमे पालन करना चाहिए – लेकिन इसकी बंदिश मे बांधना सही नहीं है| समय के साथ-साथ समाज बदलता है और इस समाज को नियम भी बदलते रहने चाहिए|
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